________________ 410 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [षष्ठो -तञ्च दारुणात्मना मया मोहान्नाऽनुष्ठितम् / सानमती-रमणीओ क्स्खु अवही विहिणा विसंवादिदो। रमणीयः खल्वधिविधिना विसंवादितः / / / विपक:-भो! कथं लोहिदमच्छस्स वडिसं विअ मुहप्पविह एवं आसी ? / [ भोः ! कथं रोहितमत्स्यस्य बडिशमिव मुखप्रविष्टमेतदासीत् ? ] / तावत् = तावदेव / मम अवरोधस्य = अन्तःपुरस्य / निदेशे-आज्ञायां वर्तते तच्छील:-अन्तःपुरचरः। नेता = प्रधानभूतः / तव नेता = तव प्रापकः / त्वां नेतुमित्यर्थो वा / जनः = राजपुरुषः। तवं समीपम् / उपैष्यति = आगमिष्यतीतिमया प्रत्यभिहितेति-योजना / दु-प-य-न-तेति नामाक्षरसंमितेष्वेव (पञ्चसु ) दिवसेषु कञ्चक्यादिराजपुरुषान् भवतोमानेतुमहं प्रेषयिष्यामीति मयोक्तमित्याशयः / 'मदवरोधगृहप्रवेशं नेते'ति पाठान्तरे-मदन्तःपुरे प्रवेशस्य प्रापयितति तदर्थः / [ अनुप्रासः / काव्यलिङ्गं / 'वसन्ततिलका' ] // 13 // तत् = स्वोक्तं / नानुष्ठितं = मया न कृतं / रमणीयः = सुन्दरः / अवधिः = त्रिचतुर-पञ्चषादिदिनात्मकः / विधिना=देवेन / विसंवादितः= मिथ्याकृतः / बडिशमिव = मत्स्यबेधनशल्यमिव / एतत् = अङ्गुलीयकम् / प्रतिदिन एक-एक करके गिनती रहना। जब तुम मेरे नाम के अक्षरों की समाप्ति पर (अन्तिम अक्षर पर) पहुँचोगी, तभी मेरे अन्तःपुर के अधिकारी पुरुष (अफसर) मेरी आज्ञा से तुमको लेने के लिए तुम्हारे पास पहुँच जाएँगे // 13 // और वही बात करहृदय मैंने (मूढने) यहाँ आकर मोह में पड़कर भुलादी। सानुमती-हा! राजा ने तो उसे बलाने की यह बहुत ही सुन्दर और रमणीय अवधि रक्खी थी। पर विधाता ( दुर्भाग्य ) ने ही सब काम बिगाड़ दिया / ( यह अवधि गड़बड़ा दी)। विदूषक-अच्छा तो हे मित्र ! 'शकुन्तला के हाथ में पहिनाई हुई यह अंगूठी रोहित ( रोहू ) मछली के पेट में काँटी की तरह कैसे पहुंच गई ? / [काँटी = मछली पकड़े की लोहे की टेढ़ी काँटी / जिसपर-आटा आदि लगाकर मछली पकड़ने वाले मछली के पेट में उसे पहुँचा कर मछली को फँसा लेते हैं /