________________ 388 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [षष्ठो सानुमती-पिअं मे पि / [प्रियं मे प्रियम् / कञ्चकी-अस्मात्प्रभवतो वैमनस्यादुत्सवः प्रत्याख्यातः / उभे-जुज्जदि (-जुजदि ) / [युज्यते-युज्यते / [नेपथ्ये-1 एदु एदु भवं / [ एतु एतु भवान् / 'दाक्षिण्येन यदा वाचं ददाति, तदा गोत्रेषु = नामसु स्खलितः सन् व्रीडाहतबुद्धिर्भवतीति वा-योजना [ 'गोत्रस्खलित' नाम सन्ध्यङ्गम् / पश्चात्तापादिके कारणे वक्तव्ये, रम्यद्वेषादिकं कार्यमुक्तमतः पर्यायोत्तम् / काव्यलिङ्गम् / शार्दूलविक्रीडितं वृत्तम् ] // 5 // प्रियं में प्रियम् = अत्यन्तं मे अभीष्टम् / एतावता दृढं शकुन्तलाऽनुरागवानयमिति निश्चयात् / अस्मात् = शकुन्तलाविरहात् कारणात् / प्रभवतः = प्रवर्द्धमानात् / वैमनस्यात् = विषादात् / अरतेः = उद्वेगात् / उत्सवः प्रत्याख्यातः = वसन्तोत्सवो राज्ञा निराकृतः / / 'ग्रुति म विमर्शसन्ध्यङ्ग कञ्चकीयप्रवेशादारभ्यैतदन्तेन प्रदर्शितम् / 'तर्जनोद्वेजने यतः' इति निकोक्तेः / छलनं च सन्ध्यङ्गं 'छलनं चावमानन'मित्युक्तेः / तत्र-अवमाननम् = उत्सवादिप्रत्याख्यानम् / युज्यते = उत्सवप्रत्याख्यानं सर्वथा युज्यते / नेपथ्ये इति / अप्रविष्टो जनो जवनिकान्तरस्थो यद्वदति तत् 'नेपथ्ये' इत्युच्यते / ' हैं। और अपनी रानियों से भी ऊपरी मन से उतनी ही बातचीत करते हैं, जिससे वे भी अप्रसन्न न हो जाएँ। पर ध्यान तो इनका शकुन्तला में ही रातदिन लगा रहता है // 5 // सानुमती-राजा के शकुन्तला के प्रति उत्कट अनुराग की सूचक ये बातें मुझे बहुत ही प्रिय मालूम हो रही हैं। कञ्चकी-और इस प्रकार शकुन्तला के विरह से बढ़ते हुए उद्वेग और दुःख से ही महाराज ने वसन्तोत्सव करने की मनाही कर दी है। दोनों चेटियों-ठीक बात है, ऐसे दुःख और उद्वेग के समय में भला वसन्तोत्सव कैसा ? / नेपथ्य में-1 महाराज ! आप इधर से पधारिए, इधर से / ( रङ्गमञ्चके पास का पर्दे से घिरा हुआ स्थान-जहाँ वेषपरिवर्तन आदि कार्य नट लोग करते हैं'नेपथ्य' कहाता है)। 1 कचिन्न /