________________ ऽङ्क] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 313 शारद्वतः-शार्ङ्गरव ! स्थाने खलु पुरप्रवेशात्तवेदृशः संवेगः / अहमपिअभ्यक्तमिव स्नातः, शुचिरशुचिमिव, प्रबुद्ध इव सुप्तम् / बद्धमिव स्वैरगतिर्जनमिह सुखसङ्गिनमवैमि // 12 // भजामि / अग्निपरीतं गृहमिव दूरतः परिहर्त्तव्यमेवेदं राजगृहमिति जानामीत्याशयः / [अत्र दुष्ट नृपादिसंनिधानादेः कारणस्याऽमावेपि, त्याज्यत्वरूपकार्योक्तविभावना / उपादेयत्वसम्पादककारणकलापसत्त्वेऽपि, कार्यस्योपादेयत्वस्याऽभावाद्विशेषोक्तिश्च / अनयोः सन्देहसाङ्कर्यम् / उपमा / अनुप्रासः / 'शिखरिणी वृत्तम्' ] // 11 // स्थाने = युक्तं / 'युक्ते द्वे साम्प्रतं स्थाने' इत्यमरः। पुरपवेशात् = जनसङ्घले नगरेऽत्र प्रवेशात् / संवेगः = सम्भ्रमः / उद्वेगः / 'समौ संवेगसम्भ्रमौ' इत्यमरः / अहमपीति / अहमपीत्थमेव तर्कयामि। इदं श्लोकेनाऽग्रिमेण सहैव व्याख्येयम् / अभ्यक्तेति / इह = राजधान्यां / स्नातः = कृतस्नानोऽहं / कृता. चारपग्ग्रिहः / अभ्यक्तमिव = तैलाभ्यक्तमशुचिमिव / किञ्च-शुचिः = पवित्रः सन् / अशुचिमिव = अपवित्र मिव / किञ्च-प्रबुद्धः = जागरितः। सुप्तमिव = निद्रितमिव / स्वैरा गतिर्यस्यामौ स्वैरगतिः = स्वतन्त्रः / बद्धमिव = निगडितमिव / सुखे सङ्गोजनाकीर्ण स्थान-यह नगर ( राजधानी ) एवं यह राजगृह ( महल ) भीअग्नि से जलते हुए घर की ही तरह अप्रिय और कष्टकर मालूम हो रहा है / अर्थात्-हमारे आश्रमों में जो शान्ति विराजती है, वह तो यहाँ विलकुल ही नहीं है // 3 // शारद्वत-हे सखे शारिव ! तुम्हारे शान्त आश्रम के वासी होने के कारण इस नगर में आने से तुम्हारे चित्त में उद्वेग होना तो सर्वथा उचित ही है। मैं भी___ विषय सुखों में फंसे हुए यहाँ के नगरवासी लोगों को इसीप्रकार देखता ( समझता हूं, जैसे स्नान किया हुआ पुरुष-तैल आदि लगाए हुए अशुद्ध पुरुष को देखता है / और शुद्ध पुरुष-अशुद्ध ( मलिन ) व्यक्ति को जैसे देखता है, और प्रबुद्ध = ज्ञानी पुरुष, अज्ञानी को जैसे देखता ( समझता ) है, तथा. 1 'अहन्तु' पा।