________________ 298 अभिज्ञानशाकुन्तलम् [पञ्चमो एक: स्वसुखनिरभिलाषः खिद्यसे लोकहेतोः, प्रतिदिनमथवा ते सृष्टिरेवंविधैवै / अनुभवति हि मूर्धा पादपस्तीत्रमुष्णं, शमयति परितापं छायया संश्रितानाम् // 6 // स्वेति / प्रतिदिनं = निरन्तरं / प्रत्यहं / स्वस्य, स्वस्मिन्नात्मनि वा यत्सुखं, तत्र निरभिलाषः = स्वसुखेच्छारहितः सन् / लोक हेतोः = लोकसुखार्थमेव केवलं / खिद्यसे = त्वं खेदमनुभवसि। . अथवा-ते = तव खलु / सृष्टिः = उत्पत्तिः / एवंविधैव = परोपकारार्थमेव / पाठान्तरे तु-वृत्तिः = नैसर्गिक वर्तनम् / एवंविधैव = ईदृश्येव / स्वसुखनिरपेक्ष परसुखोत्पादनमेव हि भवतो वृत्तिः / हि = यतः-पादयः = वृक्षः / मूर्ना = स्वशिरसा / तीव्र = तीक्ष्यम् / उष्ण = निदाघ / 'निदाघ उष्णोपगम उष्ण ऊष्मागमस्तपः' इत्यमरः / अनुभवति = सहते / परन्तु-छायया = अनातपेन / संश्रितानाम् = स्वाश्रितानान्तु / परितापं = आतपादिजातं खेदं / शमयति = दूरीकुरुते / [ काव्यलिङ्गं / दृष्टान्तः / आक्षेपः / अनुप्रासः / 'मालिनी वृत्तम्' ] // 6 // एक चारण-महाराज ! आप तो अपने सुख की इच्छा किए विना केवल लोकोपकार (प्रजा के पालन ) के लिए ही प्रति दिन (सदा) परिश्रम एवं कष्ट उठाते रहते हैं। अथवा-आप की सृष्टि ( जन्म) ही इसी कार्य के लिए है, या आपकी वृत्ति ही ऐसी है। क्योंकि-वृक्ष अपने शिर पर सूर्य के प्रखर सन्ताप को सहन करके भी अपने आश्रितों का सदा अपनी छाया से सन्ताप दूर करता रहता है / भावार्थ-जैसे वृक्ष का जन्म ही परोपकार के लिए है, वैसे ही आप का ( राजा का ) भी जन्म प्रजापालन रूपी परोपकारी कार्यों के लिए ही है। अतः इस कार्य में आप को खेद (कष्ट और उद्वेग ) नहीं मानना चाहिए / क्योंकि इसी कार्य के लिए ही तो आप जन्मे हैं और यही आप की स्वाभाविक वृत्ति भी भगवान् ने बनाई है // 6 // 1 'वृत्तिरेवंविधैव' पा० /