________________ 250 अभिज्ञानशाकुन्तलम्- . [ चतुर्थोनीयते इति उत्कण्ठासाधारणं परितोषमनुभवामि / प्रियंवदा--सहि ! अझे कधं पि उक्कण्ठां विणोदइस्सामो, सा दाणिं तपस्सिणी णिव्वुदा होदु। [ सखि ! वयं कथमपि उत्कण्ठां विनोदयिष्यामः / सा इदानीं तपस्विनी निर्वृता भवतु]। ___ अनसूया--तेन हि एकस्सि चूअसाहावलम्बिदे णारिएलसमुग्गए एदणिमित्तं जेव मए कालहरणक्खमा केसरमोलिआ णिक्खित्ता चिट्ठदि। ता इमं णलिणीबत्तसङ्गदं करेहि, जाद से अहं पि गोरोअणं, तित्यमित्तिअं, दुब्वाकिसलआइं, मङ्गलसमालम्भणं विरअएमि। [ तेन हि एकस्मिंश्तशाखावलम्बिते नारिकेलसमुद्के एतन्निमित्तमेव / शकुन्तला वियोगदुःखप्रदत्वादित्यर्थः / 'प्रियं मे प्रिय मिति पाठे तुहर्षेण सम्भ्रमे द्विरुक्तिः। उत्कण्ठामाधारणम् = उद्वेगेन सहितम् / अरतिसहितं / परितोषं = हर्षम् / 'अपरितोष मिति वा पाठः / कथमपि = पत्रादिना कुशलवृत्तान्तज्ञानादिभिः। विनोदयिष्यावः = परिहरिष्यावः / सा= शकुन्तला / तपस्विनी = अनुकम्पार्दा वंगकी तावत् / 'तपस्विी चानुकम्पार्हः' इत्यमरः / निर्वृता = भत्तगृहगमनेन सुखिता। . चूतस्य = आम्रस्य / शाखायां = विटपे / अवलम्बिते = संसक्ते / नारिकेल. इस बात से थोड़ी उत्कण्ठा, उद्वेग और असन्तोष भी हो रही है, साथ ही साथ प्रसन्नता और सन्तोष भी हो रहा है। क्योंकि शकुन्ला के बिना हम लोगों का अब मन कैसे लगेगा ? / इस ( उत्कण्ठा के ही ) कारण तो मुझे कुछ असन्तोष हो रहा है / और शकुन्तला वहाँ सुख से रहेगी, इसलिए कुछ सन्तोष भी हो रहा है। प्रियंवदा-हे सखि ! हम लोग तो अपनी उत्कण्ठा ( शकुन्तला को देखने की उत्कट इच्छा ) को कथंचित् सहन कर भी लेंगे। पर इस बेचारी को तो अपने पति के यहाँ जाकर किसी तरह से सुखी होने दो। अनसूया-ठीक ही है। अच्छा तो तूं जा, और देख, मैंने उस आम के वृक्ष की शाखा में लटकते हुए नारियल के सम्पुट (डिब्बे में इसी 1 'अपरितोष' पा० / 2 'केसरगुण्डा' पा० /