________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 233 [कोऽन्यो हुतवहात् प्रभवति दग्धुम् / तद्गच्छ / पादयोः पतित्वा निवर्त्तय / यावदस्याऽहमप्यर्योदकमुपकल्पयामि। अनमया-तह [ तथा ] (-इति निष्क्रान्ता ) / प्रियंवदा-अब्बो ! आवेअक्खलिदाए गदीए परिभट्ट मे अगहत्थादो पुष्फभाभणं। (-इति पुष्पावचयं रूपयति ) / [अम्मो! आवेगस्खलितया गत्या परिभ्रष्टं मेऽग्रहस्तात्पुष्पभाजनम् / (-इति पुष्पावचयं रूपयति)]। अनसूया--(प्रविश्य-) सहि ! सरीरी विश्र कोवो कस्स अणुण सो गेहेदि / किञ्च उण सो अणुकम्पिदो मए / त्वरया / प्रतिनिवृत्तः = आश्रमाद्वहितः / हुतवहादन्य इति / अग्निकल्पाद् दुर्वामःसदृशान्महर्षेविना कोऽन्यः शप्तुं शक्नोति महर्षेः कण्वस्य दुहितरं शकुन्तलामित्यर्थः / पादयोः पतित्वा = प्रणभ्य / अस्य = दुर्वाससः / अर्योदकं = पाद्याऽादिकम् / उपकल्पयापि - विदधामि / तथा = तथैव करोमि / 'अब्बो' इति दुःखे / आवेगेन = उद्वेगेन / स्खलितया = विक्लवया / गत्या = गमनेन / परि-. भ्रष्ट = सस्तम् / अग्रहस्तात् = हस्ताग्रात् / पुष्पावचयं = पुष्पचयनं / पुनराकर सकता है ? / दुर्वासा तो साक्षात् अग्नि ही हैं / अतः उन्होंने झट पट शाप देही तो दिया। अब तूं शीघ्र जा, और उनके पैर में पड़कर उन्हें वापिस ले आ / तब तक मैं भी उनके अतिथि-सत्कार के लिए अयंजल ( पूजा के लिए जल) आदि तैयार करती हूँ। अनसूया- ठीक है / ( दुर्वासा के पीछे 2 जाती है)। प्रियंवदा-हाय ! घबड़ाहट और जल्दी से चलने के कारण ठोकर लग जाने से मेरे हाथ से यह फूलों की डलिया गिर पड़ी है। ( यह अशकुन अमङ्गल सूचक हुआ)। [गिरे हुए फूलों को उठाती है, या पुनः फूल चुनती है ] / अनसूया-( आकर ) हे सखि ! वह दुर्वासा तो मानों साक्षात् शरीर धारण किए हुए क्रोध ही है, ( क्रोध की मूर्ति ही है)। भला वह किसकी