________________ ऽङ्कः] अभिनवराजलक्ष्मी-भाषाटीका-विराजितम् 231 [आम् / अद्य पुनरसंन्निहिता हृदयेन / तेन हि भवतु, एतावद्भिः कुसुमैः प्रयोजनम् (-इति प्रस्थिते)]। (पुनर्नेपथ्ये-) आः ! कथमतिथिं मां परिभवसि ! विचिन्तयन्ती यमनन्यमानसा, तपोनिधिं वेत्सि न मामुपस्थितम् / स्मरिष्यति त्वां न स बोधितोऽपि सन् , कथां प्रमत्तः प्रथमं कृतामिव // 1 // 'आ' इति अपमानजनितपीडायाम् / परिभवसि = अवमन्यसे / आः! अतिथिपरिभाविनि !' इति शोभनः पाठः। . विचिन्तयन्तीति / य = जनम् / अनन्यं मानसं यस्याः सा-अनन्यमानसा= अनन्यचित्ता सती। विचिन्तयन्ती = स्मरन्ती। तपोनिधिं = तपोमूर्ति / मां = दुर्वाससम् / उपस्थितं = गृहदारि स्वयमेवागतमपि / न वेत्सि =न जानासि / स:- दुष्यन्तः / त्वाम् = अतिथिजनावमानिनीं त्वां-प्रमत्तः = मादकद्रव्यादिप्रयोगत उन्मत्तः / प्रथमं कृतां = पूर्व स्वयमेवानुभूतां / स्वकृताञ्च / कथामिव = वार्तामिव / बोधितोऽपि सन् = त्वया निवेदितोऽपि सन् / न स्मरिष्यति / [विचिन्तयन्ती यतोऽतोऽनन्यमानसेति हेतुहेतुमद्भावात्काव्यलिङ्गम् / श्लेषः / उपमा / अनुप्रासाश्च / 'वंशस्थ वृत्तम् // 1 // ही जगह ( राजा दुष्यन्त में ) लगा हुआ है। अतः वह अतिथि के इस शब्द को सुनेगी, या नहीं-इसमें सन्देह ही है / अतः रहने दो, इतने ही फूलों से काम चल जायगा / चलो, कटीपर ही चलें / [फिर नेपथ्य में-] ओह ! मुझ अतिथि का तूं इस तरह तिरस्कार कर रही है ! / मेरी बात का उत्तर तक तूं नहीं देती है!। अतः अनन्य भाव से जिस ( दुष्यन्त ) की चिन्ता करती हुई तूं मुझ तपस्वी अतिथि को भी नहीं देख रही है, वह तेरा प्रिय ( दुष्यन्त ) बार बार कहने पर भी, बार बार याद दिलाने पर भी, तुझे उसी प्रकार नहीं पहिचानेगा, तुझे बिलकुल भूल जायगा, जिस प्रकार उन्मत्त-विक्षिप्त ( पागल ) हुआ मनुष्य अपने पहिले के किये हुए कार्यों को भूल जाता है // 1 //