________________ इस ग्रन्थ के व्रणेता जैनधर्म दिवाकर-शासनरत्न-तीर्थप्रभावक परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद्विजयसुशीलसूरीश्वरजी म. साo " का जन्म प्रापश्री शासनसम्राट्-सूरिचक्रचक्रवत्ति-तपोगच्छाधिपति प० पूज्य प्राचार्य महाराजाधिराज श्रीमद्विजय नेमिसूरीश्वरजी म. सा. के सुविख्यात पट्टालङ्कार-साहित्यसम्राट-व्याकरणवाचस्पतिशास्त्रविशारद-कविरत्न प० पू प्राचार्यप्रवरश्रीमद्विजयलावण्यसूरीश्वरजी म. सा. के प्रधान पट्टधर-व्याकरणरत्न-शास्त्र विशारद-कविदिवाकर-देशनादक्ष प० पू० प्राचार्यवर्यश्रीमद् विजयदक्षसूरीश्वरजी म. सा. के सहोदर पट्टधर हैं / प्रापश्री का जन्म वि० सं० 1973 की साल में भाद्र शूद द्वादशो के दिन महागुजरात में आये हुए सुप्रसिद्ध चाणस्मा गांव में चौहारण गौत्र के वीशाश्रीमाली स्व० महेता चतुरभाई ताराचन्दजी की धर्मपत्नि स्व० चंचलबाई की कुक्षी से हुआ था। प्रापश्री की भागवती दीक्षा पूर्वभव की आराधना, इस भव में माता-पिता के द्वारा बाल्यावय में पड़े हुए सुसंस्कार और सद्गुरु के संयोगादि के . कारण से दस वर्ष की अवस्था में चारित्र के पुनीत पन्थ में प्रयारण करने की शुभ भावना प्रगट हुई। वि० सं० 1988 कार्तिक (मागशर) वद बीज के दिन 15 वर्ष की बालवय में परमपूज्य प्रवर्तक मुनिप्रवर श्रीलावण्यविजय