________________ // ॐ ह्रीं अहं नमः / / oKr-Ke-KEप्रास्ताविक पुरोवचन अनादि अनंत इस संसार में अनादि काल से संसारी मारमाएँ चार गति में एवं चौरासी लाख जीवायोनि में परिभ्रमण कर रही हैं। इसका कारण अपने-अपने कर्म ही हैं। यह कर्म के ज्ञानावरणीयादि पाठ मुख्य भेद और उत्तर भेद 158 (प्रकृतियां) हैं। किसी भी कर्म की विशिष्टता-बाहुल्य बताने के लिए शास्त्रज्ञान कारण हैं, वही शास्त्रज्ञान शास्त्र में रहे हुए वाक्यों के प्राधीन हैं, वाक्यार्यज्ञान उन-उन पदार्यज्ञान के प्राधीन हैं और पदार्थज्ञान याने शमबोध उन-उन पद शक्ति को ग्रहण करना उसके ऊपर निर्भर हैं / पद शक्ति को ग्रहण करने के लिए कहा है कि - शक्तिग्रहं व्याकरणोपमान कोषाप्तवाक्याद् व्यवहारतश्च / वाक्यस्य शेषाद् विवृते वदन्ति, सान्निध्यतः सिद्धपदस्य वृद्धाः / / 1 / / अर्थ व्याकरण से, उपमान से, कोष से, प्राप्त वाक्य.से, व्यवहार से, वाक्यशेष से, विवरण से और सिद्धपद के सान्निध्य से शक्तिज्ञान होता है; ऐसा वृद्ध पुरुषों ने कहा है / / 1 / /