________________ व्याकरणवाचस्पति-कविरत्न- शास्त्रविशारद // श्रीविजयलावण्यसूरीशाष्टकम् // . [ शिखरिणी - वृत्तानि ] सुधाधारासाराऽतिम्धुर सुवाण्या रचनया। सुभत्यानां चेतोऽम्बुजदल सुपक्ती दिनमणिम् // सुशास्त्राब्धी देवाऽचलविमलधिष्णं बुधवरं / स्तुवे तं सूरीशं प्रपुरुवरलावण्य मुनिपम् // 1 // सदा कोडन्तं स-चरणजलधौ नौ वरगुरणः / सुशीलालङ्कारो-लसिततनुवल्लीसुललितम् // सुविद्वदवृन्दालि-स्तुतविबुधतं सद्गुणयुतं / स्तुवे त सूरीशं प्रगुरुवरलावण्यमुनिपम् // 2 // थशोभियस्येदं धवलमनिसन्मण्डलतलं / क्षमावल्लीमाला-परिमलविको. दशदिशः // सुलेखेन श्रीमद्-बुधजनमनो मोदकुशलं / स्तुवे तं सूरीशं प्रगुरुवरलावण्यमुनिषम् // 3 // वहन्तं योगं चाऽऽगमननपूर्व च सकलं। गत सूरीशान्तं सुगुणयुतप्रावर्तक पदात् // सभायां व्याख्याता शुभ भगवती येन निखिला। स्तुवे त सूरीशं प्रगुरुवरलावण्यमुनिपम् // 4 // प्रनल्पे ग्रन्थोचे सनिपुरणविया शास्त्रनिपुरणः। कवीनां रत्नं व्याकरण-वरवाचस्पतिरिति // शुभा प्राप्ता येन विविधपदवी श्रीगुरुवरात् / स्तुवे तं सूरीशं प्रगुरुवरलावण्यमुनिपम् // 5 // पयोधौ धातूनां गरगदशकरूपेरुपचितं / / रिणङन्तं सन्नन्तं यङिलुपिगतं नामजनितम् // - सकृद् भावव्याप्यं वसुमितविभागान विदधत / स्तुवे त सूरीशं प्रगुरुवरलावण्य मुनिपम् // 6 //