________________ दिज्जाहि जो मरन्तस्स, सागरंतं वसुन्धरं। जीबियं वा वि जो दिज्जा, जीवियं तु स इच्छइ // 254 // टंडतं मूकतं, बहिर चेव चक्खुहीणतं / ' दुहियत्तं दुभगतं, जीवहिंसाफलं नेयं // 255 / / दद्रूण पाणिनिवहं, भीमे भवसायरम्मि दुक्खत्तं / अविसेसा अणुकंपं, दुहावि सामत्थओ कुज्जा // 256 // खणमित्तसुक्खकज्जे, जीवे निहणंति जे महापावा / हरिचंदणवणसंडं, दहति ते छास्कज्जम्मि // 257 // जीवदयाए रहिओ, जीवो अन्न करेइ जो धम्म / आरूहइ छिन्नकण्णं, सो खरमेरावणं मुत्तुं // 258 // हंतूण परप्पाणे, अप्पाणं जो करेइ सप्पाणं / अप्पाणं दिवसाणं, कएण णासेइ अप्पाण॥२५९॥ भवजलहितरीतुल्लं, महल्लकल्लाणदुमअभयकुल्लं / संजणियसग्गसिवसुक्खसमुदयं कुणह जीवदयं // 260 // मुक्खत्थीहिं करेयवो, धम्मो जीवदयामओ। . जाइ जीवो अहिंसंतो, जओ अमरण पयं // 261 // जो कुणइ नरो हिंसं, परस्स जो जणइ जीवियविणासं / विरएइ सोखविरहं, संपाडेइ संपयाभंसं // 262 // जो कुणइ परस्स दुहं, पावइ तं चेव सो अणंतगुणं / लभंति अंबयाई, न हि निंबतरुम्मि ववियम्मि // 263 // FELHILEHTICE HTHHTHER