________________ श्रुत रत्नरत्नाकरे 82 जो हुन्ज उ असमत्थो, रोगेण व पिल्लिओ झरियदेहो / सव्वमवि जहाभणियं, कयाइ न तरिज काउं जे // 383 / / सोऽविय निययपरक्कमववसायधिईबलं अगृहंतो। मुत्तूण कूडचरियं, जई जयंतो अवस्स जई // 384 // युग्मम् // अलसो सढोऽवलित्तो, आलंबणतप्परो अइपमाई / एवंठिओऽवि मन्नई, अप्पाणं सुट्टिओम्हि त्ति // 385 // जोऽवि य पाडेऊणं, मायामोसेहिं खाइ मुद्धजणं / तिग्गाममज्झवासी, सो सो सोअइ कवडखवंगु व्व // 386 // एगागी पासत्थो, सच्छंदो ठाणवासि ओसन्नो। दुगमाईसंजोगा, जह बहुआ तह गुरू हुंति // 38 // गच्छाओ अणुओगी, गुरुसेवी अनियओ गुणाउत्तो / संजोएण पयाणं, संजमआराहगा भणिया // 388 // निम्ममा निरहंकारा, उवउत्ता नाणदंसणचरित्ते / एगखि त्तेऽवि ठिया, खवंति पोराणयं कम्मं // 389 // जियकोहमाणमाया, जियलोहपरीसहा य जे धीरा / वुड्ढावासेऽवि ठिया, खवंति चिरसंचियं कम्मं // 390 // पंचसमिया तिगुत्ता, उज्जुत्ता संजमे तवे चरणे / वाससयपि वसंता, मुणिणो आराहगा भणिया // 391 // तम्हा सव्वाणुन्ना, सव्वनिसेहो य पवयणे नत्थि / आयं वयं तुलिज्जा, लाहाकंखि व्व वाणियओ // 392 // धम्मम्मि नत्थि माया, न य कवडं आणुवत्तिभणिये वा। फुडपागडमकुडिल्लं, धम्मवयणमुज्जुयं जाण // 393 //