________________ // सिरि वैराग्यसययं // संसारंमि असारे, नत्थि सुहं वाहि-वेअणा-पउरे,। जागंतो इह जीवो, न कुणइ जिणदेसियं धम्मं // 1 // अज्जं कल्लं परं परारिं, पुरिसा चितंति अत्थसंपत्ति,। अंजलिगयं व तोयं, गलतमाऽऽउ न पिच्छंति // 2 // जं कल्ले कायव्वं, तं अज्ज चिय करेह तुरमाणा,। बहुविग्धो हु मुहुत्तो, मा अवरण्हं पडिक्खेह // 3 // . .. ही संसार-सहावं, चरियं नेहाणुराग-रत्तावि, / जे पुठवण्हे दिट्ठा, ते अवरण्हं न दीसंति // 4 // मा सुअह जग्गिअव्वे, पलाइअव्वंमि कीस वीसमेह, / तिन्नि जणा अणुलग्गा, रोगो अ जरा अ मच्चू अ॥ 5 // दिवसनिसा-घडिमालं, आउ-सलिलं जीआण घित्तूणं, / चंदाइच्च-बइल्ला, काल-रहट्टं भमाडंति // 6 // . .