________________ श्रुत रत्नरत्नाकरे 102 सुत्ते अत्थे य तहा उस्सग्गववायभावववहारे / जो कुसलत्तं पत्तो पवयणकुसलो तओ छद्धा // 52 // . उचियमहिज्जइ सुत्तं सुणइ तयत्थं तहा सुतित्थंमि / उस्सग्गववायाणं विसयविभागं वियाणाइ // 53 // वहइ सइ पक्खवायं विहिसारे सव्वधम्मणुट्ठाणे / देसद्धादगुरूवं जाणइ गीयत्थववहारं // 54 // एसो पवयंणकुसलो छभेओ मुणिवरेहि निद्दिट्ठो / किरियागयाइ छञ्चिय लिंगाई भावसड्ढस्स // 55 // भावगयाइं सतरस मुणिणो एयरस बिति लिंगाई। जणियजिणमयसारा पुव्वायरिया जओ आहु, // 56 // इस्थिदियत्थ-संसार-विसयआरंभ-गेहदसणओ।, गड्डरिगाइपवाहे पुरस्सरं आगमपवित्ती // 5 // दाणाइ जहासत्ती पवत्तणं विहिररत्तदुढे य / मज्झत्थमसंबद्धे परत्थकामोवभोगी य // 58 // वेसा इव गिहवासं पालइ सत्तरसपयनिबद्धं तु / भावगयभावसावगलक्खणमेयं समासेण // 59 // इत्थीमणत्थभवणं चलचित्तं नरयवत्तिणीभूयं / जाणतो हियकामी वसवत्ती होइ न हु तीसे // 6 // इंदियचवलतुरंगे दोग्गइमग्गाणुधाविरे निच्चं / भावियभवस्सरूवो रंभइ सन्नाणरस्सीहिं // 61 / / सयलात्गथनिमित्तं आयासकिलेसकारगमसारं / नाऊण धणं धीरो न हु लुब्भइ तंमि तणुयपि // 62 / /