________________ // 636 // // 637 // . // 638 // // 639 // // 640 // // 641 // एकारिरपि वीर्याढ्यः, समुत्थाय जिगीषति / / अत्ययुक्तं तव स्थातुं, यस्यानन्ताः किलारयः तदरिध्वान्तसंघातं, विनि योदयी भव / राजार्केत्यभिधायासौ, विरराम महत्तमः चारित्रधर्मराजोऽथ, पप्रच्छ सचिवाग्रिमम् / .. सद्बोधं किमिह न्याय्यं, कर्तुं वैरिपराभवे स प्राह देव ! नो युक्तमन्यथा प्रतिभाषितुम् / अस्मिन्महत्तमेनेत्थं, ममाद्रेरिव भाषिते , . तथाऽपि त्वत्कृपानुनः, किञ्चिदेनं प्रतिब्रुवे / इति विज्ञप्य राजानं, स जगाद महत्तमम् दक्षोऽसि स्वामिभक्तोऽसि, धुर्यस्तेजस्विनामसि / वचो येनेदृशं, प्रोक्तं, गुरुणाऽपि हि दुर्वचम् द्विषामभिभवः सत्यं, दुःसहो मानिकेसरिन् ! / सत्यं मोहादयो वध्याः, सत्यं पूर्णं बलं च नः प्रस्तावः केवलमिहापेक्षणीयो जिगीषता। . प्रस्तावं फलदं प्राहुर्नीतिपौरुषयोर्बुधाः / स्थानं यानं तथा सन्धिविग्रहश्च परैः सह / / संश्रयो द्वेधभावश्च, षड्गुणाः परिकीर्तिताः उपायः कर्मसंरम्भे, विभागो देशकालयोः / पुरुषद्रव्यसम्पच्च, प्रतिकारस्तथाऽऽपदाम् पञ्चमी कार्यसिद्धिश्च, स्मृतमित्यङ्गपञ्चकम् / सामदानभेददण्डा, उपायाः परिकीर्तिताः प्रभुत्वोत्साहमन्त्राख्याः, प्रोक्तास्तिस्रश्च शक्तयः / / मित्रकाञ्चनभूमीनां, लाभाः सिद्धित्रयं ततः . // 642 // // 643 // // 644 // // 645 // // 646 // // 647 // 54