________________ // 48 // // 49 // // 50 // // 51 // // 52 // // 53 // तत्पृष्ठलग्नं तं दृष्ट्वा, यियासुः पृष्ठतोऽपि न / शशाक स्तम्भितो गन्तुं, वारिबद्ध इव द्विपः उत्तम्भितोऽथ तं ज्ञात्वा, वनदेवतयाऽऽशयम् / अनुगन्तुं प्रवृत्तोऽन्यौ, लक्षितौ दृष्टिगोचरम् गतस्तदनुमार्गेण, प्रययौ सोऽप्यदर्शनम् / प्रललाप ततो बाला, काऽऽर्यपुत्र ! गतिस्तव संस्थापिता कथञ्चित् सा, मया च विमलेन च / अथायातो जितरिपुर्वेगान्मिथुनको नरः तं दृष्ट्वाऽमृतसिक्तेव, सा मुदं प्राप बालिका / . निखिलः स्वीयवृत्तान्तस्तया तस्मै निवेदितः ततो नत्वा स विमलं, पुरुषो मुदितोऽब्रवीत् / बन्धुर्धाता पिता मे त्वं, दयिता येन रक्षिता प्रेष्योऽहं तव तद् ब्रूहि, किं करोमि समीहितम् / विमलः प्राह शक्त्या ते, ‘धृतेयं तत्र के वयम् कोऽयं कथय वृत्तान्तो, महन्मेऽत्र कुतूहलम् / स प्राह तन्निषीदेयं, कुमार ! महती कथा स्थिता लतागृहे सर्वे, विमलं प्रति सोऽब्रवीत् / रम्ययाम्योत्तरश्रेणिरस्ति वैताढ्यपर्वतः . पुराणि तत्र विद्यन्ते, पञ्चाशत् षष्टिरेव च / तत्रास्ति दक्षिणश्रेण्यां, पुरं गगनशेखरम् तंत्राभूदरिवक्त्राब्जचन्द्रो भूपो मणिप्रभः / तस्य देवी च कनकशिखा सद्गुणशालिनी तस्याः पुत्रोऽभवद्, भूरिभाग्यभृद् रत्नशेखरः / पुत्र्यौ पुण्यान्विते रत्नशिखामणिशिखे तथा // 54 // // 55 // // 56 // // 57 // // 58 // // 59 //