________________ // 479 // // 480 // // 481 // // 482 // // 483 // // 484 // व्यापारः सर्वशास्त्राणां, दिक्प्रदर्शन एव हि / पारं तु प्रापयत्येकोऽनुभवो भववारिधेः केषां न कल्पनादी; शास्त्रक्षीरानगाहिनी / विरलास्तद्रसास्वादविदोऽनुभवजिह्वया पश्यतु ब्रह्म निर्द्वन्द्वं, निर्द्वन्द्वानुभवं विना / कथं लिपिमयी दृष्टिाङ्मयी वा मनोमयी ततोऽनुभवसंसिद्धरक्षरातीतमार्गगः / अक्षरातीतपदवीं, निर्वृति लप्स्यसे सुखम् तत्रान्तरङ्गराज्यस्य, फलभोक्ता भविष्यसि / सर्वकर्मोज्झितः सिद्धः सिद्धानन्तचतुष्टयः राज्यप्रवेशादारभ्य, वर्धमाना विभूतयः / भविष्यन्ति न कर्तव्यस्तासु सङ्गस्त्वयाऽनघ ! पाल्याश्चारित्रधर्माद्याः, स्मर्तव्यं वचनं मम। . पदं क्रमेण दातव्यं, नौत्सुक्येन विना क्रमम् एवं ते भाविनी सिद्धिर्गच्छ राज्यं कुरुष्व तत् / परिश्रमो मे सफलः, प्राप्ते राज्यफले त्वया यथा सिद्धान्तवचनमन्वतिष्ठदथोत्तमः / निघ्नन् मोहचमू सर्वां, स्वराज्ये प्रविवेश च. औदासिन्याभिधं मार्गममुञ्चनिर्वृति पुरीम् / .. गत्वा भुङ्क्ते स राज्यं स्वं, शकचक्रधरस्तुतः चित्तवृत्तिमहाराज्यमेवमुत्तमभूभुजा / यत् कर्मपरिणामेन, प्रदत्तं तत् सुपालितम् ततस्तमपि जित्वाऽसौ, संप्राप्तो निर्वृति पुरीम् / स्वार्थमात्रप्रसक्तानां, स्नेहो न प्रतिबन्धकः .. 105 // 485 // // 486 // // 487 // // 488 // // 489 // // 490 //