________________ // 200 // // 201 // // 202 // // 203 // // 204 // व्यतीयुभूरिवर्षाणि, स्थितस्यैवं ममाथ सः / सुहृत् पुण्योदयः क्षीणः, स्थितोऽकिञ्चित्करः परम् गतो राजाऽन्यदा वाजिवाहनार्थं वने क्वचित् / गतः कुतूहलात् तत्र, पुरलोकैरहं सह श्रान्तस्तत्रैकदेशेऽथ, विश्रान्तोऽसौ ततो नृपः / उत्थाय लग्नो सामन्तान्वितो द्रष्टुं वनश्रियम् विरक्तं तत्र सोऽपश्यद् रक्ताशोकतलस्थितम् / विचक्षणाख्यमाचार्य, कुर्वाणं धर्मदेशनाम् रूपं निरूपयंस्तस्य, त्रैलोक्यनयनामृतम् / नरवाहनपृथ्वीशो, परं हर्षमुपागतः दध्यौ चाभूत् किमस्याहो, संसारोद्वेगकारणम् / चूर्णितो मदनो येन, यौवनारामचारिणा गत्वा नत्वा पदाम्भोजं, पृच्छाम्येनं शुभाशयम् / विचिन्त्यैवं नृपो गत्वा, प्रणनाम गुरोः क्रमौ तेनाथ दत्तधर्माशीनिषण्णोऽसौ महीतले / उपविष्टा यथास्थानं, प्रणम्यान्येऽपि मानवाः मया तु तादृशस्यापि, सूरे व पदद्वयम् / नतं स्तब्धेन हृदये, शैलेन्द्रीयविलेपनात् निषण्णोऽनम्र एवाऽहं, सूरिधर्ममभाषत.। भो भव्या भवविस्तारः प्रदीप्तगृहसन्निभः अस्य विध्यापने यत्नः, कर्तव्यः सुखमिच्छता / तद्धेतुर्धर्ममेघश्च, सर्वज्ञागमलक्षणः तदागमोऽभ्युपेयस्तद्विदः सेव्या दिवाऽनिशम् / भावनीयमनित्यत्वं, त्याज्याऽपेक्षा हृदाऽसताम् INHHHHHHHHTHH // 205 // // 206 // // 207 // // 208 // // 209 // // 210 // // 211 // 149