________________ // 612 // // 613 // // 614 // // 615 // // 616 // // 617 // दग्धस्थाणुसमोऽप्येष, दृश्यते नन्दिवर्धनः / आकृत्याऽत्र कुतो वाऽसौ, विचित्रा वा विधेर्गतिः इत्थं चिरं विमृश्यासौ, प्रत्यभिज्ञाय मां स्फुटम् / आलिलिङ्ग समुत्थाय, नृपः सिंहासनान्मुदा तदा किमेतदित्युच्चैर्विस्मितं राजमण्डलम् / / पप्रच्छोदन्तमखिलं निवेश्यार्धासने स माम् मयाऽपि चरिते स्वीये, प्रोक्ते प्राह विभाकरः / त्वया नानुष्ठितं सुष्ठ, हा कष्टं कर्म निघृणम् पश्य पुष्पममुष्यैव, क्लेशमत्रैव जन्मनि / अमुत्र लप्स्यसे चास्य, फलं नरकवेदनाम् हिंसावैश्वनरालर्कविकारादित्यसौ वदन् / मया प्रत्यर्थिवद् बुद्धो, निबद्धाऽस्य वधाय धी: परं न शकितो हन्तुं, कृतं नु श्याममाननम् / तेन मद्भाववह्नि च, धूमेनानुमियाय सः ततोऽहं रक्षितस्तेन, छनो माध्यस्थ्यभस्मना / अन्तः प्रज्वलितुं लग्नो, हन्म्येनमिति सर्वदा मम नोपशमायासन्, स्नानमानादिसत्क्रियाः / तत्कृता वारिधेरापो, वडवाग्नेरिवाखिलाः स्थितेष्वास्थानशालायामस्मासु मतिशेखरः / एकदा प्राह स ययौ, दिवं देवः प्रभाकरः परं दुःखं ततश्चक्रे, साश्रुनेत्रो विभाकरः / मां प्रति सौहार्दाद्, भुव राज्यमिदं पितुः वैश्वानरविकारेण, स्थितोऽहं मौनवांस्तदा / . स्नेहादेकत्र शय्यायां, निशि सुप्तो मयाऽथ सः / 118 // 618 // // 619 // // 620 // // 621 // // 622 // . // 623 //