________________ // 588 // // 589 // // 590 // // 591 // // 592 // // 593 // इति विस्मृत्य तातत्वमज्ञात्वा स्नेहपूर्णताम् / उपकारित्वमध्यात्वाऽनालोच्य दुरितागमम् कर्मचण्डालतां धृत्वा, तातोऽपि दलितोऽसिना / आक्रन्दन्ती ततो माता, ग्रहीतुमसिमागता छिना साऽपि च खड्गेन, वैरिणीति धिया मया / अथ त्रीण्यपि लग्नानि, युगपद्धजयोर्मम अन्याय्यं किङ्कृतमिति, पूत्कुर्वन् शीलवर्धनः / निवारणोद्यता रत्नवती च मणिमञ्जरी, ' एकैकेन प्रहारेण, हतानि त्रीण्यपि क्षणात् / अधावच्चेदमाकर्ण्य, द्रुतं कनकमञ्जरी मयाऽनुध्यातमेषापि, पापा मद्वैरिरागिणी / विस्मृत्याकृत्रिमस्नेह, साऽपि छिनाऽसिना ततः अत्रान्तरे च संरम्भाद, गलितं मत्कटीतटात् / परिधानं निपतितमुत्तरीयं महीतले कीर्णकेशस्ततो नग्नो, जातोऽहं प्रेतसन्निभः / तादृशं मां समुद्वीक्ष्य, जहसुर्डिम्भपतयः निषेद्धं स्वजना लग्नास्तद्घातायोद्यतं च माम् / तान् सर्वानपि निघ्नंश्च, गतः स्तोकामहं भुवम् गृहीतो भूरिभिर्लोकः, पातयित्वा श्रमे ततः / प्रोद्दामो वन्यहस्तीवोद्दालितश्च करादसिः बद्ध्वा क्षिप्तोऽपवरके कपाटपुटसंकटे / मस्तकं स्फोटयंस्तत्र, स्थितः क्षामो बुभुक्षया दन्दह्यमानस्तापेन, निद्रामप्राप्नुवन्निशि / मासमात्रं स्थितः कालं, नारकोपमवेदनः // 594 // // 595 // // 596 // // 597 // // 598 // // 599 // 11