________________ // 11 // // 12 // // 13 // // 14 // // 15 // अर्हन्त्रपरिहन्तासा-ऽवऽरूहश्चेति नामसु / क्रमात् अ इ उ इत्येते, प्राकृते भेदकाः स्वराः अइउणिति तत्सूत्रं कृतं पाणिनिनादिमम् / एतद्योगेन सिद्धत्व-मोङ्कारेण निरुप्यते अ इत्यस्मादधोलोकः, ऊ इत्युद्वस्थसूचकः / मे मर्त्यलोकस्तिर्यग्भूः, सुवृत्तस्तत ओमिति आकारात् उपवर्गस्य, स्थानीयो ज्याससंगृही। अपवर्गस्तदोङ्कारे, बिन्दुः सिद्धोऽपि तत् स्थितः अ इत्यात्मा तद्वितर्के, उर्मे मोक्षः शिवस्ततः / अनाकारबिन्दुरूपः, ॐकारस्तन्मयो मतः अतिभक्ति विष्णुरूपात्, उपलब्धिरुकारगा। मे महाव्रतमोङ्कार-स्त्रियोगे ब्रह्मकेवलम् अतिविष्णुरुतिब्रह्मा, मे शिवस्तत्त्रयीमयः। . ॐकारः परमं ब्रह्म, ध्येयो गेयस्तदर्थिभिः अकार अततीत्यात्मा, सपञ्चमोपयोगतः। उतोमिति महानन्दे, शिवो बिन्द्वाकृतिर्भवेत् अहंपदे व्यञ्जनेन, वर्जितेप्यों तदव्ययम् / सिद्धाभिधायकं ध्यायन्, शिव एव निरञ्जनः अ: सूर्यःस उना युक्तः, प्रकाशेन मकारके। महावीर शिवावस्था-मोङ्कारे बिन्दुना नमेत् अत्युकारे मकारे च, त्रिपदी या व्यवस्थिता। तन्मयस्त्रिजगद्व्यापी, ॐकारः परमेश्वरः // 16 // // 17 // // 18 // // 19 // // 20 // // 21 // . 203