________________ // 27 // // 28 // // 29 // // 30 // इत्थं पञ्चनमस्कारसमं यज्जीवितं व्रजेत् / न याति यद्यसौ मोक्षं, ध्रुवं वैमानिको भवेत् सावधं योगमुपधि, बाह्यं चाऽभ्यतरं तथा / यावज्जीवं त्रिविधेन, त्रिविधं व्युत्सृजाऽधुना चतुर्विधाहारमपि, यावज्जीवं परित्यज / उच्चसे चरमे देहमपि, व्युत्सृज सत्तम ! धन-स्वजन-गेहादौ, ममत्वं मुश्च कोविद ! / सर्व विघटते प्रान्ते, धर्म एकस्तु निश्चलः दुष्कर्मगर्हणां जन्तुक्षामणां भावनामथ / चतुः शरणं च नमस्कारचाऽनशनं तथा इत्थमाराधनां षोढा, विधाप्य दयितं निजम् / / पुनर्मदनरेखा धीरयामास धीरधीः .. विभाव्यैतद् महाभाग ! विचिन्त्य नरकव्यथाम् / सर्वत्राऽप्रतिबद्धः सन्नेतदुःखं सह क्षणम् . नरत्वं जिनधर्मादिसामग्री दुर्लभा पुनः / . समचित्तैः क्षणं भूत्वा, तदस्या गृह्यतां फलम् // 31 // // 32 // // 33 // // 34 // आचार्यश्रीवर्धमानसूरिरचिते स्वोपज्ञटीकासहिते. धर्मरत्नकरण्डके // अन्तिमऽऽराधना // तेलोक्कपूयणिज्जे, जगप्पईवे जिणे जियारिंगणे / वंदामि जे अईए, अणाइकालेण सिद्धिगए वंदामि संपयं जे, विहरंति महाविदेहवासम्मि। . वंदामि जे भविस्संति एसु पनरसु खेत्तेसु // 2 // 235