________________ // 123 // // 124 // // 125 // // 126 // // 127 // // 128 // गुणेन्दुमण्डलीराहु-स्तपोमार्तण्डदुर्दिनम् / कोषोऽयं सिद्धिविद्वेषी क्षमया योध्यतां बुधैः प्रोन्मूल्य विनयालानं, विघट्य गुणशृङ्खलाम् / अनक्कि मानमत्तेभो, धर्मारामं निरङ्कुशः येषां दि गुणद्वेषी, मानो नैवावतिष्ठते / तैरिहाश्रीयते श्रेयो, मानो मानोचितः सताम् माया मायाकृते मूर्ख ! मायामायापहामिमाम् / सन्तोऽसन्तोषभाजोऽपि सन्तः सन्तोषतः स्मृताः सत्यधाराधरे वात्या, दुर्ध्यानध्वान्तयामिनी / विश्वासाचलदम्भोली माया हेया हितार्थिना सन्ति क्षमान्विता मान-मुक्ता मायोज्झिता पुनः। . न ज्ञायतेऽस्ति नास्तीति, निर्लोभः कोऽपि विष्टपे ? अतिकर्तिकया लोकं, क्षोभितं लोभरक्षसा। . निरीक्ष्य रक्ष्यते दक्षैः, स्वात्मा संतोषरक्षया . एते कषायाश्चत्त्वारः चतुर्गतिभवाध्वनि। सध्यञ्चः सर्वथा हेयाः प्राञ्चद्भिः पञ्चमी गतिम् क्षमा क्रोधाग्निपानीयं, मानाद्रौ मार्दवं पविः / मायातमोऽर्क ऋजुताऽनीहा लीभविषामृतम् . सक्तः स्पर्श करी मीनो, रसे गन्धे मधुव्रतः। रूपे पतङ्गो हरिणः, शब्दे व्यापादमाप्नुयात् श्रेयोविषयवृक्षाग्रे, व्यापार्येन्द्रियमर्कटान् / आत्मारामाश्रमाः कामं, निवृत्तिं यान्ति योगिनः सत्कर्मभूपंभक्त्याप्त-सप्तक्षेत्रोर्वरासु ये। वपन्ति वित्तबीजानि, तेषां सस्यश्रियोऽतुषाः // 129 // // 130 // // 131 // // 132 // // 133 // // 134 //