________________ // 319 // // 320 // // 321 // // 322 // // 323 // // 324 // विजयं वैजयन्तं च, जयन्त चाऽपराजितम् / प्राक्क्रमेण विमानानि, मध्ये सर्वार्थसिद्धकम् . ततो द्वादशयोजन्या, ऊर्ध्वं सिद्धिशिलाऽस्ति तु / पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनायामविस्तृता ततोऽप्युपरि गव्यूतत्रितयात् समनन्तरम् / तुर्यगव्यूतषष्ठांशे, सिद्धा लोकाग्रतावधि आ सौधर्मेशानकल्पं, सार्धा रज्जुः समावनेः / सनत्कुमार-माहेन्द्रौ, सार्धं रज्जुद्वयं पुनः रज्जवश्चाऽऽसहस्रारं, पञ्च षट् चाऽच्युतावधि / लोकान्तमवधीकृत्य, जायन्ते सप्त रज्जव: सौधर्मेशानकल्पौ तु, चन्द्रमण्डलवर्तुलौ / दक्षिणार्धे तत्र शक्र, ऐशानश्चोत्तरार्धके / सनत्कुमार-माहेन्द्रावप्येवं तत्समाकृती / सनत्कुमारोऽपाच्यार्धे, माहेन्द्रस्तूत्तरार्धके लोकपुंस्कूर्परसमप्रदेशेऽतः परं पुनः / लोकमध्यभागे ब्रह्मलोको ब्रह्मा च तत्प्रभुः प्रान्ते सारस्वता-ऽऽदित्या-ऽग्न्यरुण-गर्दतोयकाः / तुषिता-ऽव्याबाध-मरुद्रिष्टा लोकान्तिकामराः तदूर्ध्वं लान्तकः कल्पस्तन्नामा तत्र वासवः / .. तस्योपरि महाशुक्र, इन्द्रस्तन्नामकोऽत्र च .. तदूर्ध्वं च सहस्रारस्तन्नामा तत्र वासवः / सौधर्मेशानसंस्थानावानत-प्राणतौ ततः तयोः प्राणतकल्पस्थः, प्राणताख्यः पुरन्दरः / तदूर्ध्वं च तदाकारी, द्वौ कल्पावारणा-ऽच्युतौ 255 // 325 // // 326 // // 327 // // 328 // // 329 // // 330 //