________________ / // 127 // // 128 // // 129 // // 130 // // 131 // // 132 // सार्धद्विषष्टिसहस्रयोजनेष्वथ तादृशम् / मेखलायां द्वितीयस्यां, तावत् सौमनसं वनम् वनात् सौमनसात् षट्त्रिंशद्योजनसहस्रतः / भवेदूवं तृतीयस्यां, मेखलाभुवि सुन्दरम् चतुर्नवत्यग्रचतुःशतयोजनविस्तृतम् / वलयाकारमुद्यानं, मेरोः शिरसि पाण्डुकम् जम्बूद्वीपे त्विह द्वीपे, सप्त वर्षाणि भारतम् / हैमवतं हरिवर्ष, विदेहं रम्यकं तथा हैरण्यवतैरवते, अमून्या दक्षिणोत्तरम् / विभागकारिणोऽमीषाममी वर्षधराद्रयः हिमवन्महाहिमवनिषधा नील-रुक्मिणौ / शिखरी चेति मूलोव॑तुल्यविस्तारशालिनः तत्राऽवगाढो मेदिन्यां, पञ्चविंशतियोजनीम् / हेममयोऽद्रिर्हिमवानुच्छ्रितः शतथोजनीम् महाहिमवदद्रिस्तद्विगुणोऽर्जुननिर्मितः / ततोऽपि द्विगुणस्तापनीयो निषधपर्वतः नीलस्तु निषधतुल्यो, गिरिर्वैडूर्यनिर्मितः / महाहिमवता तुल्यो, रुक्मी रजतनिर्मितः / तापनीयस्तु शिखरी, समो हिमवदद्रिणा। . सर्वेऽपि पार्श्वभागेषु, विचित्रमणिशालिनः सहस्रयोजनायामस्तदर्धेन तु विस्तृतः / अद्रौ क्षुद्रहिमवति, पद्मनामा महाहूदः महाहिमवदद्रौ तु, महापद्माभिधो हृदः / विद्यते पद्महूदतो, द्विगुणायाम-विस्तृतिः 239 // 133 // // 134 // // 135 // // 136 // // 137 // // 138 //