________________ // 132 // // 133 // // 134 // // 135 // // 136 // // 137 // तस्मादुक्तगुणाढ्याय, देयं सूरिपदं ध्रुवम् / विधिपूर्वं विधिश्चात्र, सामाचार्यां प्रपञ्चितः ततोऽसौ नित्यमुद्युक्तः, कार्ये प्रवचनस्य च / व्याख्यानं कुरुतेऽर्थेभ्यः, सिद्धान्तविधिना खलु एतस्यैव गणानुज्ञाऽन्यस्य वा गुणयोगिनः / गुरुणा विधिना कार्या, गुणयोगी त्वयं मतः सूत्रार्थज्ञः प्रियदृढधर्मा सर्वानुवर्तकः / सज्जातिकुलसंपन्नो, गम्भीरो लब्धिमांस्तथा संग्रहोपग्रहपरः, श्रुतरागी कृतक्रियः / एवंविधो गणस्वामी, भणितो जिनसत्तमैः गीतार्था कुलजाऽभ्यस्तसत्क्रिया पारिणामिकी / गम्भीरोभयतोवृद्धा, स्मृताऽऽर्याऽपि प्रवर्तिनी एतद्गुणवियोगे तु, गणीन्द्रं वा प्रवर्तिनीम्। . स्थापयेत्स महापाप, इत्युक्तं पूर्वसूरिभिः . दीक्षावय:परिणतो, धृतिमाननुवर्तकः। स्वलब्धियोग्यः पीठादिज्ञाता पिण्डैषणादिवित् एषोऽपि गुरुणा सार्द्ध, विहरेद्वा पृथग्गुरोः / तद्दत्तार्हपरीवारोऽन्यथा वा पूर्णकल्पभाक् उपाध्यायपदादीनामप्यनुज्ञैवमेव च। . . गीतार्थत्वगुणस्तुल्यस्तेषु व्यक्त्या त्वमी कमात् सम्यक्त्वज्ञानचारित्रयुगाचार्यपदोचितः / सूत्रार्थविदुपाध्यायो, भवेत्सूत्रस्य वाचकः तपःसंयमयोगेषु, योग्यं यो हि प्रवर्तयेत् / निवर्तयेदयोग्यं च, गणचिन्ती प्रवर्तकः . 15 // 138 // // 139 // // 140 // // 141 // // 142 // // 143 //