________________ // 389 // // 390 // // 391 // // 392 // // 393 // // 394 // पूर्वं निरूपितेन च पूर्वनिषिद्धेन वा सतोऽप्यत्र / कार्ये गुरोः पुनः पृच्छा प्रतिपृच्छा जिनैरुक्ता सा च्छन्दना यदशनादिके गृहीतेऽर्थ्यते मुनिर्भोक्तुम् / अगृहीत एव तस्मिनिमन्त्रणामाहुरर्हन्तः यद्गम्यते बहुश्रुत-सूरिसमीपे विमुच्य निजगच्छम् / सम्यग्ज्ञानादित्रय-लाभार्थं सोपसम्पदिति सामाचारी दशधाऽपि चक्रवालेतिसंज्ञया गदिता / चक्रमिव येन वलते भ्रमति प्रतिपदमहोरात्रम् सामाचारी दशधाऽन्यापि प्रेक्षा प्रमार्जना चैव / भिक्षेर्यापथिकाऽऽलोचनानि भोजनविधिः षष्ठी मात्रकशुद्धिविचारौ स्थण्डिलमावश्यकादिकविधानम् / एषाऽपि यथास्थानं विवृता दशधाऽपि पूर्वत्र इति दिनकृत्यं कुर्वन्नवभिः कल्पैः सदापि विहरेत / तत्राष्टमासकल्प्यास्तेषु न पीछादिपरिभोगः विजिहीर्ण्यवस्तुवार्षिकमासिककल्पावसानदिवसेषु / पीठादिकं समप्यौं-पग्रहिकं सर्वमुपकरणम् . शय्यातरमापृच्छ्यं प्रमृज्य वसति तृतीयपौरुष्याम् / विहरन्ति पथि तु दूरे प्रथमे प्रहरे द्वितीयेऽपि गीतार्थश्च विहारोऽपरस्तु गीतार्थनिश्रितो भवति / गीतं तु सूत्रमुक्तं जघन्यतोऽप्यादिमाङ्गं तत् तद्द्वादशाङ्गमुत्कृष्टतोऽ नयोर्मध्यगन्तु मध्यमतः / अर्थः सूत्रव्याख्या गीतेनार्थेन युक्तो यः तन्निश्रया विहारो युक्तो गच्छस्य बालवृद्धयुजः / अप्रतिबद्धस्य सदा द्रव्यादिचतुष्कमाश्रित्य // 395 // // 396 // // 397 // // 398 // // 399 // // 400 // 159