________________ // 12 // // 13 // // 14 // // 15 // // 16 // // 17 // सदाऽनभिनिवेशश्च, विशेषज्ञानमन्वहम् / यथार्हमतिथौ साधौ दीने च प्रतिपन्नता अन्योऽन्यानुपघातेन त्रिवर्गस्यापि साधनम् / अदेशाकालाचरणं बलाबलविचारणम् यथार्हलोकयात्रा च परोपकृतिपाटवम् / ही: सौम्यता चेति जिनैः प्रज्ञप्तो हितकारिभिः एतद्युतं सुगार्हस्थ्यं, यः करोति नरः सुधीः / लोकद्वयेऽप्यसौ भूरि, सुखमाप्नोत्यनिन्दितम् तस्मिन् प्रायः 'प्ररोहन्ति, धर्मबीजानि गेहिनि / विधिनोप्तानि बीजानि विशुद्धायां यथा भुवि स आदिधार्मिकश्चित्रस्तत्तत्तन्त्रानुसारतः। . इह तु स्वागमापेक्षं, लक्षणं परिगृह्यते स धर्मदेशनायोग्यो मध्यस्थत्वाज्जिनैर्मतः। . योगदृष्ट्युदयात्सार्थं, यद्गुणस्थानमादिमम् . सा च संवेगकृत्कार्या, शुश्रूषोर्मुनिना परा / बालादिभावं संज्ञाय, यथाबोधं महात्मना संविग्नस्तच्छुतेरेवं, ज्ञाततत्त्वो नरोऽनघः / दृढं स्वशक्त्या जातेच्छः, संग्रेहऽस्य प्रवर्तते न्याय्यश्च सति सम्यक्त्वेऽणुव्रतप्रमुखग्रहः / जिनोक्ततत्त्वेषु रुचिः, शुद्धा सम्यक्त्वमुच्यते निसर्गाद्वाऽधिगमतो, जायते तच्च पञ्चधा / मिथ्यात्वपरिहाण्यैव, पञ्चलक्षणलक्षितम् योगवन्दननिमित्तदिगाकारविशुद्धयः / योग्योपचर्येति विधिरणुव्रतमुखग्रहे // 18 // // 19 // // 20 // // 21 // // 22 // // 23 //