________________ // 168 // // 169 // // 170 // // 171 // // 172 // // 173 // संक्लेशो न हि कर्तव्यः संक्लेशो बन्धकारणम् / संक्लेशपरिणामेन जीवो दु:खस्य भाजनम् संक्लेशपरिणामेन जीव: प्राप्नोति भूरिशः / सुमहाकर्मसम्बन्धं भवकोटिसुदुःखदम् चित्तरत्नमसंक्लिष्टं महतामुत्तमं धनम् / येन संप्राप्यते स्थानं जरा-मरणवर्जितम् सम्पत्तौ विस्मिता नैव विपत्तौ नैव दुःखिताः / महतां लक्षणं ह्येतद् तनुद्रव्यसमागमात् आपत्सु संपतन्तीषु पूर्वकर्मनियोगतः / धैर्यमेव परं त्राणं न युक्तमनुशोचनम् विशुद्धपरिणामेन शान्तिर्भवति सर्वतः / संक्लिष्टेन तु चित्तेन नास्ति शान्तिर्भवेष्वपि संक्लिष्टचेतसां पुंसां संसारो याति वृद्धिताम् / विशुद्धा चेतसो वृत्तिः सम्पत्ति-वृत्तिदायिनी यदा चित्तविशुद्धिः स्यादापदः सम्पदस्तदा / समास्तत्त्वविदां पुंसां सर्वं हि महतां महत् परोऽप्युत्पथमापन्नो निषेद्धं युक्त एव सः / किं पुनः स्वमनोऽत्यर्थं विषयोत्पथयायि यत् अज्ञानाद् यदि वा मोहाद् यत्कृतं कर्म.कुत्सितम् / व्यावर्तयेन्मनस्तस्मात् पुनस्तन्न समाचरेत् / अचिरेणैव कालेन फलं प्राप्स्यसि दुर्मते ! / विपाकेऽतीवतिक्तस्य कर्मणो यत्त्वया कृतम् स्वल्पेनैव हि कालेन फलं प्राप्स्यसि यत्कृतम् / शशवदात्मकर्णाभ्यां गोपयन् स्वं मनागपि 125 // 174 // // 175 // // 176 // // 177 // // 178 // // 179 //