________________ // 12 // // 13 // // 14 // // 15 // // 16 // // 17 // जो जीवदयाजुत्तो परदारं सो न कह वि पत्थेइ।। नूणं दाराण कए जणो वि दव्वं समज्जेइ / जारिसया उप्पज्जइ मह देहे वेयणा पहारेहिं / तारिसया अन्नाण वि जीवाणं मूढ ! देहेसु जो देइ परे दुक्खं तं चिय सो लहइ लक्खसयगुणियं / बीयं जहा सुखेत्ते वावियं बहुफलं होइ / सयलाणं पि नईणं उवही मुत्तूण नत्थि आहारो / तह जीवदयाए विणा धम्मो वि न विज्जए लोए इक्क च्चिय जीवदया जणेइ लोयम्मि सयलसुक्खाई। जह सलिलं धरणिगयं निप्फायइ सयलसस्साइं न य किंचि इहं लोए जीयाहिंतो जियाण दइय परं। अभयपयाणाउ जगे नहु अन्नं उत्तमं दाणे पाणिवहपायवाओ फलाई कडुयाइं हुंति घोराई। न य कडुयबीयजायं दीसइ महुरं फलं लोए निंबाओ न होइ गुलो उच्छू न य हुंति निंबगुलियाओ। हिंसाफलं न होइ सुखं न य दुक्खं अभयदाणेणं जो देइ अभयदाणं देइ य सुक्खाइं सव्वजीवाणं / उत्तमठाणम्मि ठिओ सो भुंजइ उत्तमं सुक्खं लोभाओ आरंभो आरंभाओ य होइ पाणिवहो / लोभारंभनियत्ते नवरं अह होइ जीवदया तो जाणिऊण एयं मा मुज्झह अत्तणो सकज्जेसु। सव्वसुहकारणाणं बीयं ता कुणह जीवदयं इय जाणिऊण एवं वीमंसह अत्तणो पयत्तेणं / जो धम्माओ चुक्को चुक्को सो सव्वसुक्खाणं // 18 // // 19 // // 20 // // 21 // // 22 // // 23 // 320