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________________ स्वाद चखने को इन्दोर आपके सामने आया तो आपने मुंह छुपालिया, और अपने नामसे पत्र लिखने में भी डर गये. यह कैसी बहादुरी, और आपकी सही वाले फागण शुदी 10 के पोस्ट कार्ड में आपने शास्त्रार्थ के लिये नियम प्रतिज्ञा वगैरह बातें दोनों पक्षवालों को ते करने का स्वीकार किया था. वो आपका वचन हवा खाता कहां चला गया. और आपने मेरे लिये-शास्त्रार्थ करने को न आवे, शास्त्रार्थ न करे, व्यर्थ पत्र लिखा करें उसपर कुत्तेका दृष्टांत लिखा था. अब व्यर्थ पत्र लिखकर दूसरे की आडमें शास्त्रार्थ से कौन भगता है, और वो कुत्तेका दृष्टांत किस पर बराबर घटता है, उसका विचार पाठकगण स्वयं करेंगे, उसके साथ साथ आप भी करलें. पाठकगणको सूचना. उपरके पत्रव्यवहार में शास्त्रार्थ संबंधी मुख्यतासे 9 बातें मैंने विवादस्थ ठहराईथीं, उन्हीं बातोंका शास्त्रार्थ में निर्णय होनेवाला था. मगर उन्होंने शास्त्रार्थ किया नहीं. इसलिये इन्ही 9 बातोका खुलासा अब लिखा जाता है. यद्यपि श्रीमान् विजयधर्मसूरिजीने अपने देवद्रव्य संबंधी विचारों की 4 पत्रिकाओंमें यह 9 बातें आगे पीछे लिखी हैं, ‘परंतु मैं तो पत्र व्यवहार के अनुक्रम मुजब यहांपर निर्णय लिखना चाहता हूं. उसमें भी स्वप्न उतारने के द्रव्यको देवद्रव्यमें लेजाना या साधारण खाते, इस बातका सबसे मुख्य बडा भारी विवाद है, इसलिये मैं भी पहिले इस बातका निर्णय बतलाता हूं, पीछे अन्य सब बातों का अनुक्रम से निर्णय बतलाने में आवेगा.
SR No.004449
Book TitleDevdravya Nirnay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJinkrupachandrasuri Gyanbhandar
Publication Year1917
Total Pages96
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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