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________________ 8. मैंने चैत्र वदी 3 के पत्रमें " मध्यस्थ पक्षमें लोगों की शंका दूर करने के लिये मैं शास्त्रार्थ करना चाहता हूं" इत्यादि साफ खुलासा लिखा है. जिसपर भी 'विजयपताका फर्राने ' का आपने झूट ही लिखवाया है, इसका भी आपको मिच्छामि दुक्कडं देना चाहिये 9 संयति जन होते हैं, वो तो शास्त्रार्थमें शांतिपूर्वक उपयोगसे सत्यका निर्णय करते हैं. और असंयति मिथ्यात्वी जन होते हैं. वो लोग सत्यका निर्णय करना छोडकर व्यर्थ आपस में थूक उडाकर क्लेश बढाते हैं. बड़े अफसोस की बात है कि आप इतने बड़े होकर के भी संयति के मार्ग को छोडकर असंयति मिथ्यात्वियों की तरह ,क उडानको मेरे साथ कैसे तयार होगये हो. इस. अनुचित बातका भी आपको मिच्छामि दुक्कडं देना योग्य है. 10 सामान्य साधु होता है, वह भी मिथ्या भाषणसे अपने महाव्रत भंग, लोक निंदा और परभवमें दुर्गतिका भय रखता है, मगर आप इतने बड़े होकर के भी मिथ्या भाषण का और अपनी बातको बदलने का कुछभी विचार नहीं रखते हैं. शासनका आधारभूत आचार्य पद है. आपने उस पद को धारण किया है, जिसपर भी अपनी बातका ख्याल नहीं रखते हैं, यह कीतनी अफसोस की बात है. देखो जैन के लेवोंको और फागण गुदी 10 क पोस्ट कार्ड व चैत्र वदी 3 के पत्रको. आप अपनी बातको सत्य करना चाहते हो तो मेरे साथ शास्त्रार्थ करिये, नहीं तो मेरे को धोका बाजी से इन्दोर बुलवाया और अब शास्त्रार्थ नहीं करते उसका भी मिच्छामि दुकडं दीजिये... 11 आपकी तर्फ से मेरेको विशालविजयजी के नाम से पत्र लिखने में आते हैं, मगर उन पत्रों को देखनेवाले अनुमान करते हैं कि ऐसे अक्षर व भाषा विशालविजयजीकी न होगी किंतु. विद्या विजयजी वंगरह अन्यकी होना संभव है इस लिये आपको सूचना दी जाती है
SR No.004449
Book TitleDevdravya Nirnay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJinkrupachandrasuri Gyanbhandar
Publication Year1917
Total Pages96
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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