SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ को सच्ची समझते हो तो बगर बिलंब शास्त्रार्थ करने का स्वीकार करिये. इस न्याय मार्ग को छोडकर अन्य बातों की आड लेकर अपनी झूठी बातका बचाव करना चाहते हो सो कभी न हो सकेगा. आपने नवीन प्ररूपणा करके जैन समाज में क्लेश फैलाया है, और शासन को बडी भारी हानी पहुंचने का कारण किया है. इसलिये या तो शास्त्रार्थ का स्वीकार करिये या अपनी प्ररूपणा को पीछी खींचकर जैन समाजसे मिच्छामि दुक्कडं देकर इस विषय संबंधी क्लेश को इतनेसेही समाप्त करिये. 5 सत्यग्रहण करनेकी और झूठका मिच्छामि दुक्कडं देने जितनी भी आपकी आत्मामें निर्मलता अभीतक नहीं हुई है, इसलिये आपको यह बात बहुत बार लिखने परभी आपने अभीतक इस बातको स्वीकार नहीं किया और मुख्य बातको उडानेके लिये व्यर्थ अन्य अन्य बातें लिख कर शास्त्रार्थ से पीछे हटते हैं. ' न संघ बीचमें पड़े और न हमारी बात खुले ' ऐसी चालबाजी में कुछ सार नहीं है. यदि आपकी आत्मा निर्मल हो तो, जैसे आप अन्य जाहिर सभा भरते हैं, उसमें यहां का संघ आता है, वैसेही इस शास्त्रार्थकी भी जाहिरसभा भरनेका दिवस वर्तमानपत्रोंमें जाहिर करिये, उसमें यहां का और अन्यत्र काभी बहुत संघ सभामें आवेगा. व्यर्थ संघकी आड लेकर शास्त्रार्थ से पीछे क्यों हटते हो ? 6 . मैं इन्दोर की राज्यसभा शास्त्रार्थ करने को तयार हूं." यह बात आपने मेरे कौनसे पत्र ऊपरसे लिखी है, उसकी नकल भेजिये. नहीं तो झूठ का मिच्छामि दुकडं दीजिये. 7. आपने जैनपत्रमें " मणिसागर ना पत्रो थी मालूम पडे छे के ते शास्त्रार्थ करे तेम जणातुं नथी." मेरे लिये ऐसा छपवाया है. मैं शास्त्रार्थ करना नहीं चाहता हूं. उन पत्रोंकी नकल भेजिये, अगर तो तीन रोज में छपवाकर जाहिर करिये, नहीं तो झूठ छपवाने का मिन्छामि दुक्कडं दीजिये,
SR No.004449
Book TitleDevdravya Nirnay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJinkrupachandrasuri Gyanbhandar
Publication Year1917
Total Pages96
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy