________________ पत्रिका नं०४ उपसंहार अब तक तीन पत्रिकाओं द्वारा मैंने, “देवद्रव्य सम्बंधी अपने विचार" बताये हैं। अब इस विषय का उपसंहार करूंगा। मैंने अपनी पत्रिकाओं में 'देवद्रव्य' किसे कहते है और देवद्रव्य की वृद्धि, * इसका उपाय और उसके व्यय से सम्बन्धित छोटे - बड़े जितने प्रश्न स्वबुद्धि से उत्पन्न हो सकते थे, उन सबका समाधान शास्त्रीय एवं व्यावहारिक दृष्टि से किया है। मेरी पत्रिकाओं को तटस्थ दृष्टि से पढ़ने वाला कोई भी पाठक जान सकेगा कि मैंने अपने विचारों में सम्पूर्णतया मूर्ति मन्दिर, और देवद्रव्य की आवश्यकता स्वीकार की है। मैंने जैन समाज को यदि किसी प्रकार की विशेष आगाही की है और करता हूं तो वह यही कि-"पूजा-आरती वगैरह प्रसंगों में बोली बोलने का रिवाज संघ की कल्पना है इसलिए संघ उन बोलियों से एकत्रित द्रव्य अब से साधारण खाते में ले जाने का निर्णय करना चाहे तो कर सकता है, इसमें किसी प्रकार का शास्त्रीय विरोध नहीं है।"