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________________ ( 53 ) जीवों की तरफ मैं अपने हृदय में भावदया ही रखता हूं। उनके निराधार आरोपों के प्रति विशेष न कहकर सिर्फ इतना ही कहूंगा कि-'हाथ कंकण को आरसी क्या?' जब लोग मेरी पत्रिकाओं को ध्यानपूर्वक पढ़ेंगे तो वास्तविक-सत्य बात ज्ञात हो जाने पर, असत्य आक्षेप करने वालों के प्रति उनके मन में भी करुणा ही उत्पन्न होगी। कहने का तात्पर्य यह है कि देवद्रव्य की वृद्धि हेतु शास्त्रकारों का जो कुछ भी कथन है. उसका कोई भी व्यक्ति प्रतिकार नहीं कर सकता है। शास्त्रकारों ने देवद्रव्य की वृद्धि के लिए बहुत कुछ कहा है। देखिए'संबोधसप्तति' के ६६वों गाथा में कहा है"जिणपवयणवुढिकरं पभावगं नाणदंसणगुणाणं / वड्ढंतो जिणदव्वं तित्थयरत्तं लहइ जीवो // 76 // " .. अर्थात-'जिन प्रवचन की वृद्धि करने वाले तथा ज्ञान-दर्शन गुणों के प्रभावक-ऐसे जिनद्रव्य की वृद्धि करने वाले जीव तीर्थङ्करत्व को प्राप्त करते हैं।' इसी प्रकार श्राद्धविधि के .७४वें पृष्ठ पर, द्रव्यसप्तति (प्रसारक सभा-भावनगर से छपी) के ३०वें पृष्ठ पर, धर्मसंग्रह के पृष्ठ 167 पर, संबोधप्रकरण के पृष्ठ 4 पर, आत्मप्रबोध के पृष्ठ 71 पर तथा दर्शनविशुद्धि के पृष्ठ 52 पर,-वगैरह अनेक ग्रंथों में जिनद्रव्य की वृद्धि करने वाले के लिए महान् फल बतलाया है।
SR No.004448
Book TitleDevdravya Sambandhi Mere Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsuri
PublisherMumukshu
Publication Year
Total Pages130
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size6 MB
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