________________ ( 45 ) 77 में इस प्रकार का पाठ है. “साधारणमपि द्रव्यं संघदत्तमेव कल्पते व्यापार-- यितु, न त्वन्यथा। संघेनाऽपि सत्तक्षत्रीकार्य एवः व्यापार्य, न मार्गणादिभ्यो देयं / " अर्थात्-साधारणद्रव्य भी संघ द्वारा ही प्रदत्त हो तभी उपभोग किया जा सकता है, अन्यथा नहीं, तथा संघ को भी चाहिए कि वह उस द्रव्य का सात क्षेत्रों के. कार्यों में ही उपयोग करे, याचक वगैरेह को न दे। इस पर से स्पष्ट हो जाता है कि साधारण द्रव्य. को भी प्रत्येक व्यक्ति स्वेच्छा से नहीं वापर (व्यय कर) सकता है। उचित प्रकार से श्री संघ ही उसका व्यय करने का अघ्निकारी है / साधारण द्रव्य और देवद्रव्य में सिर्फ इतना अंतर है कि देवद्रव्य का व्यय केवल देवसंबंधी-मूर्ति-मंदिरादि के कार्यों में ही हो सकता है जबकि साधारण द्रव्य का सप्तक्षेत्रों में कर सकते हैं। सातों क्षेत्रों में भी जो दयनीय दशा में हो, उनमें ही प्रधानतया व्यय करना चाहिए न कि जीमने जीमाने में। . इस प्रकार जो खाता सातों ही क्षेत्रों का पोषण कर सकता हो, उसी खाते में द्रव्य की वृद्धि करना अधिक उपयोगी है। इस प्रकार से उक्त खाते की.