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________________ "ततो महेभ्य-सुश्रावकतवा सम्यग्ज्ञान-साधारणद्रव्यरक्षा- तदुत्सर्पणादिना श्रावधर्ममाराध्य प्रवज्य च सिद्धौ" ____ अर्थात्-तत्पश्चात् उन दोनों बन्धुओं ने महान् श्रीमन्त और श्रावक बनकर, ज्ञानद्रव्य और साधारण द्रव्य को रक्षा तथा वृद्धि आदि करते हुए श्रावकधर्म की आराधना की। तदुपरान्त दीक्षा ग्रहण कर मोक्ष प्राप्त किया। विचारिए, इस पाठ में 'उत्सर्पण' शब्द किस अर्थ में प्रवर्तमान है ? 'स्पर्धापूर्वक चढ़ावा करना (बोलना)' यह अर्थ, इस उत्सर्पणशब्द के साथ किञ्चित् भी संबंध रखता है क्या ? स्पष्ट है कि यह 'उत्सर्पण' शब्द सामान्यतया ‘वृद्धि' अर्थ को ही बता रहा है। __ और भी देखिएँ-'संबोधसप्तति' के पृष्ठ 51 पर आई हुई "जिणपवयणवुड्ढिकरं" गाथा की वृत्ति प्रस्तुत मतभेद पर कितना अनुपम आलोक प्रदान करती है / . "तथा ज्ञानदर्श नगुगानां प्रभावकम् उत्सर्पणाकारकम्' अर्थात्-"ज्ञानदर्श न गुणों को प्रभावना करने वाला अर्थात् उन गुणों की 'उत्सर्पणा' करने, वाला अथवा उन गुणों को विकसित करने वाला।" 'अब बताइएँ, यहाँ, 'उत्सर्पण' शब्द का ऐसा अर्थ कर
SR No.004448
Book TitleDevdravya Sambandhi Mere Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsuri
PublisherMumukshu
Publication Year
Total Pages130
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size6 MB
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