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________________ 143 सुंदरीए दिक्खा। लाई कुणेइ, तह जयच्चिय देवेण पन्चयंती निसिद्धा तओ पभिई एसा भावओ'संजया विव हि चिट्ठई / एवं सोच्चा महीणाहेण कल्लाणकारिणी तुं पव्वइउं इच्छसि त्ति पुठा सुंदरी 'एवं' ति वएइ / भरहनरिदो वि साहेइ-'पमाएण अज्जवेण वा अहं इयंतकालं इमीए वयविग्धगरो होत्था, इमा खलु अवच्चं तायपायाणं अणुरूवं सिया, निरंतरं विसयासत्ता रज्जाऽतित्ता अम्हे के ?, अंबुहिवारितरंगुव्व आउं विणसिरं, एयं जाणंता वि विसयपसत्ता जणा न जाणेइरे / दिनहाए विज्जूए मग्गावलोयणं पिव खणभंगुरेण अणेण आउसेण मोक्खमग्गो जइ साहिज्जइ तं सोहणयरं, मंसमज्जा-मल-मुत्त-रुहिर-सेयाऽऽमयमइयदेहस्स पसाहणं गेहखालपक्खालणसरिसं चिय, एयाए तणूए मोक्खफलं वयं गिहिउं इच्छसि तं साहु, निउणा खलु खीरसमुहाओ वि रयणाई चेव गिण्हेइरे' एवं पमुइएण नरिंदेण वयाय अणुण्णाया तवकिसा वि सा सुंदरी अकिसा विव हैरिसूससिआ जाया। सुंदरीए दिक्खा___एयम्मि समये भयवं. उसहज्झओ जंगमऊरवलाहगो विहरमाणो अट्ठावयगिरम्मि समागच्छेइ, तत्थ पव्वयम्मि देवा रयण-कंचण-रुप्पमइयं अवरं पव्वयमिव समोसरणं रएइरे। तत्थ देसणं कुणमाणं पहुं जाणिऊण गिरिपालगा सिग्धं भरहचक्कबहिस्स समीवं उवेच्च विण्णवेइरे, तया सामिणो समागमणसमायारं समायण्णिऊण मेइणीवई छक्खंडभरहखेत्तविजयाओ वि अहिगं पमुइयचित्तो हवइ, पत्थिवो पहुसमायारविण्णवगाणं भिच्चाणं सड्ढदुवालसकोडीसुवण्णस्स पारिओसियं देइ, 'तुम्ह मणोरहसंसिद्धीए मुत्तिन्न जगगुरू इह आगिच्छित्था' इअ सुन्दरिंकहेइ य, तओ भरहेसरो दासीजणेहिं पिव नियंतेउरवहूजणेहिं तीए निक्खमणाभिसेयं करावेइ / अह कयसिणाणा सा सुंदरी कयपवित्तविलेवणा सदसवसणाई परिहेइ, तओ जहट्ठाणं उत्तमरयणालंकारे धरेइ सीलालंकारवईए तीए बाहिरालंकारा आयारपालणट्ठमेव / तहटियाए सुंदरीए पुरओ रूवसंपयाए इत्थीरयणं सा सुभदावि चेडिव्व विभाइ / तया सा सीलसुंदरी सुंदरी जंगमा कप्पवल्लिव्य जो जं मग्गेइ तं तस्स अविलंबियं वियरेइ, कप्पूरधूलि-धवल-वत्थेहिं उवसोहिया सा मराली कुमुइणि पिच सिबियं आरोहेइ / हथिवग-साइ-पाइक्क-रह-च्छण्णभूमिणा नरिंदेण मरुदेविव्व सुंदरी अणुसरिज्जइ / चामरेहिं वीइज्जमाणा, सेयच्छत्तेहिं विराइज्जमाणा, वेयालियगणेहिं थुणिज्जमाणनिविडवयगहणसद्धा, भाउभज्जाहिं गिज्जमाणपवज्जमहूसवमंगला पए पए वरइत्थीहि 1 दीक्षितेव / 2 आर्जवेन / 3 हर्षोच्छ्वसिता / 4 जगन्मयूरमेघः / 5 सादिन्-अश्ववारः /
SR No.004443
Book TitleSiri Usahanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykastursuri, Chandrodayvijay Gani
PublisherNemi Vigyan Kastursuri Gyanmandir
Publication Year1968
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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