________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-2-1-2 (64) 57 क्ह प्राणी इस प्रकार वृद्धावस्था में मूढता को पाने के कारण से प्रायः आसपास के लोग एवं ज्ञाति-कुटुंबीलोगों से भी अपमानित होता है यह बात अब सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... V सूत्रसार : __प्रत्येक प्राणी का यह जीवन जन्म और मृत्यु का समन्वित रूप है। अपने कर्म के अनुसार जब से आत्मा जिस योनि में जन्म ग्रहण करती है, तब से काल याने यमराजा (मरण) उसके पीछे लग जाता है और प्रतिसमय वह प्राणी मृत्यु के निकट पहुंचता है, या यों कहना चाहिए कि- उसका भौतिक शरीर प्रतिक्षण पुराना होता रहता है। यह ठीक है कि- उस में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों को हम अपनी आंखो से स्पष्टतः देख नहीं पाते, कुछ स्थूल परिवर्तनों को ही देख पाते हैं और इसी अपेक्षा से हम जीवन को चार भागों में बांट कर चलते हैं१-बाल्य काल, २-यौवन काल, ३-प्रौढ़ अवस्था और ४-वृद्वावस्था। बाल्य काल जीवन का उदयकाल है। बाल्य काल में क्रमशः शारीरिक विकास होता है... प्रौढ़ अवस्था में शारीरिक विकासस्रोत रुक जाता है। धीरे-धीरे व्यक्ति इन्द्रियबल से निर्बल होने लगता है। यहां से वृद्वावस्था का प्रारंभ हो जाता है। यह जीवन का जीर्ण-शीर्ण रूप है, इस काल में स्वास्थ्य का, इन्द्रियों का, शरीर का अर्थात् यों कहिए कि- शारीरिक सभी अवयवों का ह्रास होने लगता है। कान, आंख, नाक, जिह्वा और त्वचा की सामर्थ्य शक्ति कमजोर हो जाती है। इन इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने में भी कठिनाई होने लगती है। वृद्ध मनुष्य को जीवन निर्वाह भी कठिन एवं बोझिल हो जाता है। वह अपने जीवन से तंग होकर दुःख एवं संक्लेश का अनुभव करने लगता है। वृद्वावस्था का वर्णन करते हुए भर्तृहरि ने यह श्लोक कहा है “गात्रं संकुचितं गतिर्विगलिता दन्ताश्च नाशं गताः, दृष्टिभ्रंश्यति रूपमेव हसते वक्त्रं च लालायते / वाक्यं नैव करोति बान्धवजनः पत्नी न शुश्रूषते। धिक्कष्टं जरयाऽभिभूतपुरुषं पुत्रोऽप्यवज्ञायते॥" // 1 // अर्थात्- वृद्धत्व के आते ही शरीर में झुर्रिया पड़ जाती हैं, पैर लड़खड़ाने लगते हैं, दांत गिर जाते हैं, दृष्टि कमजोर पड़ जाती है या नष्ट हो जाती है, रूप-सौन्दर्य का स्थान कुरूपता ले लेती है, मुख से लार टपकने लगती है, स्वजन-स्नेही उसके आदेश का पालन नहीं करते, पत्नी सेवा-शुश्रूषा से जी चुराती है, पुत्र भी उसकी अवज्ञा करता है। कवि कहता है कि- ओह ! इस वृद्धत्व के कष्ट का कोइ पार नहि है... धिक्कार हो कष्टमय इस जरा ग्रस्त जीर्ण-शीर्ण वृद्धत्व को।