________________ 4 // 1-2 - 1 - 2 (64) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हुए मनुष्य को पांच खिडकीयों से प्राप्त = जानी-देखी हुइ वस्तु का स्मरण-ज्ञान कोइ भी एक-दो खिडकी बंध होने के बाद भी होता है... वह इस प्रकार- मैं अभी इस श्रोत्र (कान) से शब्द को बराबर स्पष्ट नहिं ग्रहण कर शकता हूं... जब कि- इन आंखो से स्पष्ट देख शकता हूं... क्योंकि- यहां आंख-कान आदि इंद्रियों का शब्द रूप आदि ग्रहण करने में कारणत्व स्वरूप का बोध स्पष्ट हि होता है... प्रश्न- यदि ऐसा है तब अन्य और भी करण है, तो उनका कथन क्यों नहिं कीया ? जैसे कि- (1) वाक् = वचन, (2) हाथ, (3) पाउं (चरण, पैर) (4) गुदा (मल विसर्जन द्वार) (5) उपस्थ (पुरुष का लिंग तथा स्त्री की योनि) तथा (6) मन यह सभी अनुक्रम से बातचीत, दान, विचरण, मलविसर्जन, वैषयिक-आनंद और संकल्प-विकल्प कार्य करतें है... इसीलिये यह सभी भी आत्मा को उपकारक होने से कार्य में कारणत्व कहे जायेंगे... और कारण होने से इन्हें भी इंद्रिया कही जायेगी... इस प्रकार 5 + 6 = ग्यारह (11) इंद्रियां होते हुए भी पांच का हि क्यों ग्रहण कीया ? उत्तर- आचार्य कहते हैं कि- यहां कोई दोष नहि है... किंतु यहां आत्मा को ज्ञान की उत्पत्ति में जो विशेष उपकारक है वे हि करण होने से उन्हें इंद्रिय कहतें हैं... यह वाणी, हाथ आदि आत्मा को विशेष रूप से ज्ञान के करणत्व स्वरूप व्यापार = क्रियाएं नहि करतें... यदि जो कोइ भी क्रिया को लेकर करणत्व कहोगे, तब भ्रूकुटि, उदर (पेट) आदि में भी उत्क्षेपादि क्रियाएं होने से उन्हे भी करण कहना पडेगा... किंतु यह पांच इंद्रियां अपने अपने विषय-कार्य में नियत होने से अन्य इंद्रिय का कार्य अन्य इंद्रिय कर नहि शकती... वह इस प्रकार- जैसे कि- रूप को देखने के लिये आंखें हि समर्थ है, आंख के अभाव में श्रोत्र आदि नहि... और जो रसनेंद्रिय से रस आदि के ज्ञान के साथ साथ शीत, उष्ण स्पर्श का भी जो ज्ञान होता है, वह स्पर्शज्ञान स्पर्शेद्रिय से होता है, क्योंकि- स्पर्शेद्रिय शरीर में सभी जगह फैलकर रही हुइ है, अतः यहां कोइ कुशंका न करें... तथा हाथ का छेद होने पर भी ग्रहण स्वरूप हाथ का कार्य दांत आदि से भी होता है, किंतु यह सामान्य बात है... और मन तो सभी इंद्रियों को उपकारक है, अत: मन को अंत:करण कहते हि हैं... क्योंकि- बाह्य इंद्रियों के ज्ञान के विनाश में मन कुछ भी जान नहि शकता, इसीलिये मन को स्वतंत्र इंद्रिय नहि कहा है... और यह मन एक एक इंद्रिय के द्वारा ग्रहण क्रम से होनेवाले ज्ञान के उपलक्षण के लिये है, जैसे कि- जिस किसी इंद्रिय के साथ मन जुडता है वह हि इंद्रिय अपने विषय-गुण को ग्रहण करने में प्रवृत्त होती है, अन्य इंद्रिया नहि... प्रश्न- किंतु दीर्घशष्कुली याने जलेबी के भोजन आदि में पांचो इंद्रियों का ज्ञानं एक साथ हि अनुभव में आता है न ?