________________ 40 // 1-2-0-05 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन आगम सूत्र में कहा भी है कि- हे भगवन् ! इस प्रकार अतिसूक्ष्म गात्र = शरीर के संचार स्वरूप योग से केवली को जो कर्मबंध होता है उसे ईर्यापथिक कर्म कहतें हैं और वह दो समय की स्थितिवाला होता है... एक समय में बंध होता है और दुसरे समय में वेदन, और तीसरे समय में निर्जरा... तो यह ऐसा कैसे ? उत्तर- क्योंकि- प्रकृतिसे हि इस सातावेदनीय कर्मबंध में कषाय न होने के कारण से स्थिति का अभाव हि है, इसीलिये बंधन में आया हुआ वह कर्म तुरंत निर्जरित (विनष्ट) होता है... और अनुभाव = रस की अपेक्षा से तो यह सातावेदनीयकर्म अनुत्तर विमान के देवों से भी अधिक साता-सुखवाले हैं और प्रदेश से स्थूल, रुक्ष, शुक्ल आदि बहुप्रदेश स्वरूप है... कहा भी है कि- स्थिति का अभाव होने से अल्प स्थितिवाला, परिणाम से बादर, और अनुभाव = रस से मृदु... बहुप्रदेशों से बहु और स्पर्श से रूक्ष... वर्ण से शुक्ल = श्वेत और लेप से मंद... स्थूल चूर्णवाली मुट्ठी भीत-दिवार पर फेंकने से होनेवाले लेप की तरह एक समय में हि सभी कर्मो का अपगम = विनाश होने से महाव्ययवाले और अनुत्तर विमान के देवों के सुख से भी अधिक साता-सुखवाले इस सातावेदनीय कर्म का बंध 11-12-13 गुणस्थानवाले यथाख्यात चारित्रवालों को हि होता है... इस प्रकार ईर्यापथिक कर्म का स्वरूप पूर्ण हुआ... अब आधाकर्म का स्वरूप कहतें हैं... जिस साधु को निमित्त स्वरूप आधार लेकर पूर्व कहे गये आठों प्रकार के कर्मों का बंध होता है वह आधाकर्म... और वह आधाकर्म शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध आदि स्वरूप है... वह इस प्रकार- शब्दादि कामगुण-विषयों में आसक्त, विषयसुख को चाहनेवाला, मोह के कारण से विनष्ट शुभ चित्तवाला साधु, परमार्थ से शब्दादि में सुख न होते हुए भी सुख का आरोप करता है... अन्यत्र कहा भी है किदुःख स्वरूप शब्दादि विषयों में सुख माननेवाला तथा सुख के कारण ऐसे व्रत-नियम आदि में दुःख माननेवाला अज्ञानी जीव दर्पण में विपरीत प्रतिबिंबित हुए वर्ण पद एवं पंक्तियां की तरह अन्यरूपता में समानता की भ्रांति से भ्रमित होता है... यहां सारांश यह है कि- कर्मबंध के कारण स्वरूप शुभ एवं अशुभ शब्द आदि विषय हि आधाकर्म है.. अब तपःकर्म का स्वरूप कहते हैं... वह इस प्रकार- बद्ध, स्पृष्ट, निधत्त एवं निकाचित स्वरूपवाले इन आठों कर्मो के निर्जरा के कारण स्वरूप छह (6) बाह्य एवं छह (6) अभ्यंतर भेद से बारह (12) प्रकार का तपःकर्म है... ___ कृतिकर्म = इन आठों कर्मो को आत्मा में से दूर करनेवाला, अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय आदि को नमन स्वरूप यह कृतिकर्म है...