________________ 4521 -5-5-5 (177) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन हि संयम जीवन बीताता है... क्योंकि- खुद की आत्मा की तरह अन्य जीवों को भी वध में दुःख उत्पन्न होता है, अत: आत्म तुल्य भावना से अन्य जीवों का वध न करें तथा अन्यों के द्वारा जीवों का वध न करवायें... और जीवों का वध करनेवालों को अच्छा न मानें... तथा अपनी आत्मा में ऐसा संवेदन (चिंतन) करें कि- मोह के उदय से यदि कोई मनुष्य अन्य जीवों को वध आदि के द्वारा दुःख देते हैं तो बाद में अपने आप को हि, वह दुःख भुगतना पडेगा... ऐसा सोचकर जब कभी भी अन्य जीवों को वध करने का विचार आये तब विवेक का आलंबन लेकर हिंसादि-पापाचरण कभी भी न करें... अब कहते हैं कि- आपने जो कहा कि- आत्मा-भाव से अन्य जीवो के दु:खों का संवेदन करें... किंतु वह संवेदन तो साता एवं असाता स्वरूप है और वह दुःख का. संवेदन नैयायिक एवं वैशेषिकों के मतानुसार आत्मा से भिन्न किंतु समवाय संबंध से रहे हुए गुणभूत ज्ञान से हि होता है, तो क्या आपके जिनमत में भी इसी प्रकार हि संवेदन होता है कि- आत्मा से अभिन्न ऐसे ज्ञानगुण से संवेदन होता है ? इस प्रश्न का उत्तर सूत्रकार महर्षि आगे के सूत्र से कहेंगे... v सूत्रसार : यह हम देख चुके हैं कि- सम्यग् एवं मिथ्यादृष्टि की क्रिया में अन्तर रहता है। जिस साधक के जीवन में सम्यक्त्व का प्रकाश होता है, वह प्रत्येक कार्य विवेक एवं उपयोग पूर्वक करता है। क्योंकि- वह प्रत्येक प्राणी को अपनी आत्मा के समान समझता है। परन्तु मिथ्यादृष्टि में विवेक का अभाव होता है। उसके जीवन में भौतिक भोगोपभोग ही सर्वोपरिता होती है, अत: वह दूसरे के दुःख-सुख को नहीं देखता। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है किदूसरे प्राणी की हिंसा करना निश्चित हि वह अपनी हिंसा करना है। क्योंकि- जिसे तू मारना चाहता है, अपने अधीन रखना चाता है, परिताप देना चाहता है; वह तू ही है। इसका तात्पर्य यह है कि- सभी प्राणियों की आत्मा आत्मद्रव्य की अपेक्षा से समान हैं। सभीको सुख-दुःख का समान संवेदन होता है। और प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, दुःख से बचना चाहता है। अतः इस सिद्धांत को जानने वाला साधक किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करेगा। क्योंकि- वह जानता है कि- किसी प्राणी का वध करते समय अध्यवसायोंपरिणामों में क्रूरता रहती है और भावों की मलिनता के फल स्वरूप पाप कर्म का बन्ध होता है और आत्मा पतन के महागर्त में जा गिरती है। आत्मा का पतन होना भी एक प्रकार से मृत्यु ही है। मृत्यु के समय दुःखानुभूति होती है और हिंसक प्रवृत्ति से भी दुःख परम्परा में अभिवृद्धि होती है। इससे जन्म-मरण का प्रवाह बढ़ता है। इस प्रकार मरने वाले प्राणी के अहित के साथ मारने वाले प्राणी का भी अहित होता है। वह पापकर्म से बोझिल होकर