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________________ 434 ॥१-५-५-१(१७3)卐 श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन %3 श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 5 उद्देशक - 5 - हृदोपम : . चौथा उद्देशक कहा, अब पांचवे उद्देशक का प्रारंभ करतें हैं... यहां परस्पर यह संबंध है कि- चौथे उद्देशक में अव्यक्त याने अगीतार्थ को एकचर्या (एकाकी विहार) में होनेवाले अपाय याने उपद्रव कहे, अब उन उपद्रवों से बचने के लिये साधु सदा आचार्य की सेवा (वैयावच्च) करे, तथा आचार्य भी हृद याने सरोवर की उपमावाले हो, और शिष्यगण भी तपश्चर्या संयम एवं गुप्तिओं को धारण करके नि:संग होकर विहार करें... इस संबंध से आये हुए इस पांचवे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 173 // 1-5-5-1 से बेमि तं जहा- अवि हरए पडिपुण्णे समंसि भोमे चिट्ठइ, उवसंतरए सारक्खमाणे से चिट्ठइ सोयमज्झगए से पास सव्वओ गुत्ते, पास लोए महेसिणो जे य पण्णाणमंता पबुद्धा आरंभोवरया सम्ममेयंति पासह, कालस्स कंखाए परिव्वयंति त्तिबेमि // 173 // // संस्कृत-छाया : सोऽहं ब्रवीमि तद्यथा-अपि ह्रदः प्रतिपूर्णः समे भूभागे तिष्ठति, उपशान्तरजाः सारक्षन् सः तिष्ठति श्रोतोमध्यगतः सः पश्य सर्वत: गुप्तः, पश्य लोके महर्षयः ये च प्रज्ञानवन्तः प्रबुद्धाः आरम्भोपरताः सम्यक् एतत् इति पश्यत, कालस्य काङ्क्षया परिव्रजन्ति इति ब्रवीमि // 173 // III सूत्रार्थ : तीर्थंकर भगवान ने आचार्य के गुणों का जैसा वर्णन किया है, वैसा ही मैं (सुधर्मस्वामी) हे जंबू ! तुम्हें कहता हूं। जैसे कि- एक जल से परिपूर्ण उपशान्त रजवाला जलाशय समभूमि में ठहरा हुआ, जलचर जीवों का संरक्षण करता हुआ स्थित है। इसी प्रकार आचार्य भी सद्गुणों से युक्त, उपशान्त एवं गुप्तेन्द्रिय हैं। वे श्रुत का अनुशीलन-परिशीलन करते हैं; एवं अन्य साधुओं को भी श्रुत का बोध कराते हैं। हे शिष्य ! तू लोक में उनको देख जो महर्षि हैं, आगमवेत्ता, तत्त्वज्ञ एवं आरंभ -समारंभ से निवृत्त हैं। हे शिष्यं ! तू मध्यस्थ भाव से उनके जीवन का अवलोकन कर, वे महापुरुष जलाशय के समान हैं, अत: मुमुक्षु
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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