________________ 4187 1-5-4-1(169) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन होती है... तथा यदि कोइ भी गृहस्थ इस प्रकार सेवा-वैयावच्च नहि करता है तब उस साधु को आर्तध्यान होने से आत्मविराधना होती है... तथा अतिसार आदि रोग होने पर मूत्र, मल (विष्टा) के जंबाल याने कादव के बिच होने के कारण से प्रवचन-हीलना होती है... और गांव आदि में रहने पर ब्राह्मण आदि लोगों के द्वारा केशलोच आदि के बाबत में अधिक्षेप (आक्षेप) होने पर परस्पर कलह दंडादंडि (मारामारी) एवं अपशब्द बोलने की पुरे पुरी संभावना है... यह सभी कष्ट गच्छ में रहे हुए साधु को नहि होतें... क्योंकि- गच्छ में गुरुजनों से मार्गदर्शन (उपदेश) एवं सुरक्षा प्राप्त होती है... अन्यत्र भी कहा गया है कि- एकाकी विहार करने में अज्ञानी जीवों के द्वारा आक्रोश, हनन, मारण एवं धर्मभ्रष्ट होने तक के उपद्रवों की संभावना है, जब कि- गच्छ में रहने पर ऐसे उपद्रवों की संभावना नहि होती... और गच्छ में रहने पर भी यदि कभी ऐसा अज्ञानीओं के द्वारा उपद्रव हो; तब गुरुजी समाधि के लिये उपदेश देते हुए कहतें हैं कि- यह उपसर्ग समभाव से सहन करोगे तो कर्मो की निर्जरा होगी...' अर्थात् आत्मगुणो का लाभ होगा... इस प्रकार गच्छ में गुरुजनो का अनुशासन-हितशिक्षा प्राप्त होती है... जब कि- गच्छ से बाहर अकेले विचरने में मात्र दोष हि दोष होतें हैं... कहा भी है कि- संयम में उद्यत ऐसे साधर्मिक साधुओं को छोडकर जो साधु एकाकी विहार करता है, उसे आतंक = रोग आदि की प्रचुरता में छह जीवनिकाय के जीवों के वध से होनेवाली विराधना का संभव है, तथा एकाकी विहार करनेवाले साधु को स्त्री, कुत्ते एवं दुश्मनों से उपद्रव होता है, तथा भिक्षा याने आहार ग्रहण में दोष लगतें हैं; एवं महाव्रतों में भी दोष लगते हैं, अतः साधु गच्छ में रहे या अन्य एक गीतार्थ साधु के साथ विहार करे... यह हि उनके लिये उचित है... तथा गच्छ में रहने से साधु को अनेक गुणो की प्राप्ति होती है... और गच्छ में रहने से बाल, वृद्ध आदि की सेवा से उद्यत विहार का लाभ प्राप्त होता है... जैसे किजल में रहा हुआ काष्ठ, स्वयं खुद तैरता है, एवं आश्रित अन्य को भी तैराता है, वैसा हि समर्थ साधु के सहयोग से, संयमानुष्ठान में खेद पानेवाले बाल, वृद्ध आदि भी. संयमानुष्ठान में स्थिर एवं दृढ होकर संसार समुद्र को तैरतें है... इस प्रकार एकाकी विचरने में होनेवाले दोषों को देखकर एवं गच्छ में रहनेवाले के गुणो की प्राप्ति को देखकर उचित कारणों के अभाव में व्यक्त-गीतार्थ साधु भी एकचर्या स्वरूप एकाकी विहार न करे... और अव्यक्त साधु को तो उचित कारण होने पर भी एकाकी विहार कभी भी नहि करना चाहिये... प्रश्न- एकाकी विहार की संभावना हो तब निषेध करना युक्तियुक्त है; किंतु एकाकी विहार की संभावना हि नहि है, तो फिर यहां एकाकी विहार के निषेध का कथन क्यों करते हो ? और कौन ऐसा मूर्ख होगा ? कि- जो सहयोगीओं को (सहायों को) छोडकर