________________ 416 // 1-5-4-1(169) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 5 उद्देशक - 4 卐 अव्यक्तः // तृतीय उद्देशक कहा, अब चौथे उद्देशक का प्रारंभ करते हैं... यहां परस्पर यह संबंध है कि- प्रथम उद्देशक में कहा था कि- हिंसक विषयारंभक एवं एकचर साधु में मुनिपने का अभाव होता है तथा दुसरे एवं तीसरे उद्देशक में यह कहा है कि- हिंसा विषयारंभ एवं परिग्रह के परिहार के साथ-साथ हिंसादिदोषोवालों के दोष-दुःख देखकर मुनी विरतिवाला हि होता है... अब इस चौथे उद्देशक में एकचर साधु के (मुनिपने के अभाव में) संभवित दोषों को दिखाने के द्वारा उसके कारण कहतें है... इस अभिसंबंध से आये हुए चौथे उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 169 // 1-5-4-1 गामाणुगामं दुइज्जमाणस्स दुज्जायं दुप्परक्कतं भवइ, अवियत्तस्स भिक्खुणो॥१६९॥ II संस्कृत-छाया : ग्रामानुग्रामं दूयमानस्य दुर्यातं दुष्पराक्रान्तं भवति। अव्यक्तस्य भिक्षोः // 169 // III सूत्रार्थ : अगीतार्थ भिक्षु को अकेले एक गांव से दूसरे गांव का विचरना सुखप्रद नहीं होता। और ग्रामानुग्राम विचरण के अभाव में उसके चारित्र का पतन होने की संभावना है। IV टीका-अनुवाद : बुद्धि आदि गुणों का जो ग्रास याने कवल करे; उसे ग्राम याने गांव कहते हैं... एक गांव के बाद दुसरा गांव, उसे ग्रामानुग्राम कहते हैं... अर्थात् ग्रामानुग्राम विहार करनेवाले एकाकी साधु को अनुकूल एवं प्रतिकूल उपसर्गों की संभावना से अरणिक-मुनी की तरह दुर्यात याने गतिभेद होता है... दुष्टव्यंतरीजंघा च्छेदकी तरह... तथा दुष्पराक्रांत याने वसति में एकाकी रहे हुए साधु के उपर दुर्जनों का आक्रमण होता है जैसे कि- स्थूलभद्र की ईष्या करनेवाले उपकोशा के घर में रहे हुए साधु अथवा परदेश गये हुए पतिवाले घर में रहे हुए साधु की तरह...