________________ 414 // 1-5-3-5(168) श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन मुक्त के समान मुक्त हि है... क्यों कि- वह साधु मुनी सावद्यानुष्ठान से विरत हुआ है... यहां “इति" पद अधिकार की समाप्ति का सूचक है, एवं ब्रवीमि पद का अर्थ पूर्ववत् जानीयेगा... V सूत्रसार : प्रस्तुत सूत्र में चारित्र की श्रेष्ठता का दिग्दर्शन कराया गया है। यहां यह बताया गया है कि- रत्न त्रय से सम्पन्न व्यक्ति पापकर्म से छुटकारा पा सकता है। सम्यग्ग् दर्शन, ज्ञान और चारित्र की समन्वित साधना से ही आत्मा; मोक्ष को पा सकता है। संयम याने सम्यक् चारित्र के साथ सम्यग् दर्शन और ज्ञान को तो होना ही है। क्योंकि- सम्यग् दर्शन एवं ज्ञान के अभाव में चारित्र सम्यग् हो ही नहीं सकता। अतः सम्यक् चारित्र के साथ ज्ञान और दर्शन अवश्य होते हैं। क्योंकि- चारित्र पापकर्म का निरोधक है और पाप कर्म अर्थात् हिंसा आदि आश्रवों दोष, है, क्योंकि- उनके सेवन से पापकर्म का बन्ध होता है, इत्यादि बोध ज्ञान से ही होता है। इसलिए साधशास्त्रदष्टि स्वरूप ज्ञान की आंखो से हेय और उपादेय मार्ग को ज्ञान की आंखो से हेय और उपादेय मार्ग को देखता है, पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को समझता है और सम्यग् दर्शन से उस यथार्थ मार्ग पर श्रद्धा-विश्वास करता है और पंचाचार स्वरूप चारित्र के द्वारा हेय मार्ग का त्याग करके उपादेय मार्ग का स्वीकार करता है। इस तरह रत्नत्रय की आराधना से वह मुनी पूर्व काल में बन्धे हुए कर्मों का क्षय करता है, अभिनव पापकर्म के बन्ध को रोकता है। इस तरह वह संयम साधना से निष्कर्म बनने का प्रयत्न करता है। . पंचाचार स्वरूप रत्नत्रय की आराधना त्याग-वैराग्य से युक्त आत्माएं ही कर सकती हैं। विषय-भोगों में आसक्त व्यक्ति उसका पालन नहीं कर सकते। साधु का वेश ग्रहण करके भी जो मनुष्य मठ -मन्दिर या चल-अचल संपत्ति पर अपना आधिपत्य जमाए बैठे हैं, एवं अनेक प्रकार के आरम्भ-समारंभ में संलग्न हैं, वे रत्नत्रय की साधना से दूर हैं। रत्नत्रयी याने पंचाचार की उपासना के लिए धन-सम्पत्ति, स्त्री, पुत्र, परिवार एवं घर आदि सभी पदार्थों से आसक्ति हटानी होती है। अतः सभी प्रकार के स्नेह बन्धन एवं ममत्वभाव का त्यागी व्यक्ति ही संयम की पंचाचार की साधना कर सकता है और सभी कर्म बन्धन को तोड़कर मोक्ष-पद पा सकता है; // इति पञ्चमाध्ययने तृतीयः उद्देशकः समाप्तः // 卐卐 : प्रशस्ति : मालव (मध्य प्रदेश) प्रांतके सिद्धाचल तीर्थ तुल्य शत्रुजयावतार श्री मोहनखेडा तीर्थमंडन श्री ऋषभदेव जिनेश्वर के सांनिध्यमें एवं श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी, श्रीमद्