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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1-5 - 3 - 4 (167) 407 रहता है। वह जंगल में रहे या शहर में, सोया हुआ हो या जागृत, चल रहा हो या बैठा हो, प्रत्येक समय आत्म-साधना में लीन रहता है। भावों की दृष्टि से वह सदा आत्म चिन्तन में संलग्न रहता है। क्योंकि- एक क्षण भी आत्मा को भूलता नहीं है। इसलिए प्रस्तुत सूत्र में यह बताया गया है कि- मुनि रात के पहिले और अन्तिम प्रहर में निरन्तर आत्म चिन्तन करे। बीच के दो प्रहर निद्रा के लिए हैं। इससे शरीर को विश्राम मिल जाने से थकावट अनुभव नहीं होती, जिससे वह शेष समय आत्म चिन्तन में रह सकता है। शील शब्द का प्रयोग कई अर्थों में होता है। अष्टादश सहस्रशीलांग रथ, संयम-महाव्रतों का पालन; तीन गुप्तियों का आराधन; 5 इन्द्रिय एवं कषाय निग्रह को शील कहते हैं। इन अर्थों से शील शब्द का महत्त्व स्पष्ट परिलक्षित होता है। यह मोक्ष प्राप्ति का प्रमुख साधन है। अतः साधक को शील का पालन करने में प्रमाद नहीं करना चाहिए। संयम का शुद्ध रूप से पालन करने के लिए विषयेच्छा एवं कषायों का परित्याग करना जरुरी है। विषयासक्त एवं क्रोध आदि विकारों से प्रज्वलित व्यक्ति संयम का पालन नहीं कर सकता, इसलिए साधु को समस्त विकारों का परित्याग करना चाहिए। . इस तरह विकारों पर विजय प्राप्त करके साधु निष्कर्म बनने का प्रयत्न करता है। उसे निष्कर्म बनने के लिए औदारिक (कार्मण) शरीर से युद्ध करना पड़ता है। औदारिक शरीर से युद्ध करने का अर्थ है-शरीर बन्धन से मुक्त होकर अशरीरी बनना। किंतु यह स्थिति चार घातिकर्मों को क्षय करके जीवन के अन्त में अवशेष चार अघातिकर्मों का नाश करने पर प्राप्त होती है। अतः यह युद्ध मोक्षप्राप्ति के लिए महत्त्वपूर्ण है। इस में विजयी होने के बाद आत्मा सर्व कर्म बन्धनों से मुक्त हो जाता है। अतः साधु को अप्रमत्त भाव से संयम का पालन करना चाहिए। ... ऐसा अवसर एवं संयम के साधन का मिलना सुलभ नहीं है। अतः साधु को इस अवसर को व्यर्थ न खो देना चाहिए। इस बात को बताते हुए सूत्रकार महर्षि आगे का सूत्र कहतें है... I सूत्र // 4 // // 167 // 1-5-3-4 जुद्धारिहं खलु दुल्लहं, जहित्थ कुसलेहिं परिण्णा विवेगे भासिए, चुए हु बाले गब्भाइसु रज्जइ, अस्सिं चेयं पवुच्चइ, रूवंसि वा छणंसि वा, से हु एगे संविद्धपहे मुणी, अण्णहा लोगमुवेहमाणे इय कम्म परिणाय सव्वसो से न हिंसइ, संजमइ नो पगब्भइ, उवेहमाणो पत्तेयं सायं, वण्णाएसी नारभे कंचणं सव्वलोए एगप्पमुहे विदिसप्पइण्णे निविण्णचारी अरए पयासु // 167 //
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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