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________________ 398 // 1-5-3-1(164) // श्री राजेन्द्र यतीन्द्र जैनागम हिन्दी प्रकाशन श्रुतस्कंध - 1 अध्ययन - 5 उद्देशक - 3 है अपरिग्रहः // द्वितीय उद्देशक कहा, अब तृतीय उद्देशक का प्रारंभ करते हैं... इसका परस्पर यह संबंध है कि- द्वितीय उद्देशक में कहा कि- जो अविरतवादी है, वह परिग्रहवान् है... और यहां इससे विपर्यय याने जो अविरति का त्यागी है, वह अपरिग्रही है... अतः इस संबंध से आये हुए तृतीय उद्देशक का यह प्रथम सूत्र है... I सूत्र // 1 // // 164 // 1-5-3-1 आवंती केयावंती लोयंसि अपरिग्गहावंती एएसु चेव अपरिग्गहावंती सुच्चा वई मेहावी पंडियाण निसामिया समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए, जहित्थ मए संधी झोसिए एवमण्णत्थ संधी दुज्जोसए भवइ, तम्हा बेमि नो निहाणिज्ज वीरियं // 164 // II संस्कृत-छाया : यावन्तः केचन लोके अपरिग्रहवन्तः एतेषु एव अपरिग्रहवन्तः श्रुत्वा वाचं मेधावी पण्डितानां निशम्य समतया धर्मः आर्यैः प्रवेदितः, यथा अत्र सन्धिः झोषितः भवति, तस्मात् ब्रवीमि न निगूहयेत् वीर्यम् // 164 // III सूत्रार्थ : इस लोक में जितने भी मनुष्य हैं, उनमें कुछ ही निष्परिग्रही व्यक्ति होते हैं। पंडितों के वचन सुनकर एवं हृदय में विचार कर बुद्धिमान पुरुष अपरिग्रह को स्वीकार कर लेते हैं। वे सोचते हैं कि- आर्य पुरुषों ने समभाव से धर्म के स्वरूप का प्रतिपादन किया है। जैसे कि- मैंने रत्नत्रय का आराधन करके कर्म का क्षय किया है, वैसे ही अन्य प्राणी भी कर्म का क्षय कर सकते हैं। क्योंकि- अन्य मत-मतान्तर में कर्म का क्षय होना कठिन है। इसलिए मुमुक्षु पुरुष को पंचाचारात्मक संयम साधना में पुरुषार्थ का गोपन नहीं करना चाहिए। IV टीका-अनुवाद : इस लोक में जो कोइ अपरिग्रही विरत साधुजन हैं, वे सभी इन अल्प या बहु इत्यादि प्रकार के द्रव्यों के त्याग से अपरिग्रही होते हैं... अथवा इन छह जीवनिकाय के जीवों में
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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