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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी - टीका 1 - 5 - 1 - 1 (154) 367 कृषि-खेती करता है... तथा काम के लिये आभरण-वस्त्रादि उत्पन्न करने का आरंभ करता है... इसी प्रकार शेष अप्काय, तेउकाय आदि में भी समारंभ जानीयेगा... अनर्थ याने प्रयोजन के बिना... जैसे कि- मृगया याने शिकार के व्यसन से मनुष्य मृग आदि प्राणीयो का वध करता है... इस प्रकार असंयत मनुष्य अर्थ से या अनर्थ से (सकारण या निष्कारण) सूक्ष्म एवं बादर, पर्याप्त एवं अपर्याप्त आदि भेदवाले षड्विधजीवनिकायों में एकेंद्रियादि जीवों के उपघातवाली क्रियाओं को करता है... और उन जीवों को पीडा देकर खुद हि वहां एकेंद्रियादि में अनेक बार उत्पन्न होता है... अथवा छह जीवनिकाय के जीवों को पीडा देने से होनेवाले कर्मबंध से वह प्राणी पुनः उन छह जीवनिकाय में उत्पन्न होकर विविध प्रकार के कष्ट-पीडा का अनुभव करता है... नागार्जुनीय-मतवाले कहतें हैं कि- इस लोक में असंयत मनुष्य सकारण या निष्कारण छह जीवनिकाय के जीवों के वध का समारंभ करता है... प्रश्न- अब यहां प्रश्न यह होता है कि- असंयत मनुष्य क्यों इस प्रकार के कर्म करता है कि- उन कर्मो से वह छह जीवनिकाय में उत्पन्न होकर दुःख पाता है ? उत्तर- परमार्थ से अज्ञ ऐसे उस असंयत मनुष्य को शब्दादि विषयों के काम याने इच्छा गुरुतर याने बहोत हि है कि- जिसका त्याग नहि कर शकता... क्योंकि- पुन्य रहित एवं अल्पसत्त्ववाले प्राणी काम याने इच्छाओं का त्याग करने में समर्थ नहि होतें... अतः उन काम-इच्छा की पूर्ति के लिये छह जीवनिकाय के आरंभ में प्रवृत्त होते हैं, और ऐसा होने पर वे पाप के भार से भरे जाते हैं अत: उन पाप के उदय में वे मरण पाकर छह जीव निकाय में जन्म-मरण करते रहते हैं... क्योंकि- जीवन में पाप कर्म करनेवाले मरण होने पर जन्म लेतें हि हैं... पुन: जीवन में पाप कर्म... ऐसी स्थिति में वे संसार-समुद्र में डूबना और उपर आना याने मरना और जन्म लेना... इसी जन्ममरण के चक्र में घूमते रहते हैं... अर्थात् मुक्त नहि हो पातें... अब जब तक यह विषयसुखार्थी प्राणी कामभोग का त्याग नहि करने से मृत्यु के पास याने निकट है; तब तक परमपद के उपाय स्वरूप ज्ञानादि रत्नत्रय से और उसके कार्य स्वरूप मोक्ष से दूर है... क्योंकि- कामभोग का अपरित्याग हि मार याने मरण का कारण है... और जिसको मरण है; वह जन्म, रोग, शोक, जरा एवं मरण से अभिभूत होने के कारण से मोक्षसुख से दूर है... ___ जो कामगुरु है; वह मरण के मुख में है; अतः वह विषयसुख को भी नहि पा शकता... ' और विषयाभिलाषा का त्याग भी नहि कर पाने से वह विषयाभिलाषा से दूर भी नहि है...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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