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________________ श्री राजेन्द्र सुबोधनी आहोरी - हिन्दी- टीका 1 - 4 - 4 - 3 (152) 355 आप यह सम्यग् देखो कि- जिस कारणों से प्राणी को बंध वध एवं घोर परिताप तथा दारुण परिणाम प्राप्त होता है; उन कारणों को दूर करके तथा बाह्य धन-धान्यादि का त्याग करके निष्कामदर्शी वेदविद् मुनी हि यहां कर्मो का अशुभ फल देखकर कर्मबंध के कारणों से दूर रहता है... IV टीका-अनुवाद : कर्मो को आश्रव में गृद्ध, निरंतर कर्मो का बंध करनेवाले संयोगों का त्याग नहि करनेवाले और अज्ञानांधकार में घूमनेवाले बाल याने अज्ञ प्राणीओं को पूर्व के जन्मों में बोधिलाभ याने सम्यक्त्व प्राप्त नहि हुआ है, और भविष्य के जन्मों में भी सम्यक्त्व प्राप्त न होगा, तो फिर मध्य याने वर्तमानकाल के इस जन्म में कहां से बोधिलाभ की प्राप्ति हो ? यहां सारांश यह है कि- जिस प्राणीने पूर्वकाल में सम्यक्त्व प्राप्त कीया हो, अथवा भविष्य काल में जो सम्यक्त्व प्राप्त करेगा, उसको हि वर्तमानकाल में सम्यक्त्व प्राप्त होता है... क्योंकि- जिस प्राणीने एक बार सम्यक्त्व का आस्वाद कीया है, वह मिथ्यात्व मोह के उदय से कभी मिथ्यात्व-गुणस्थानक में जाये तो भी अर्ध पुद्गल परावर्त काल में अवश्य सम्यक्त्व प्राप्त करता हि है... क्योंकि- सम्यक्त्व का वमन होने पर पुनः सम्यक्त्व का सर्वथा असंभव नहि होता... अथवा निरुटेंद्रिय भी आदानश्रोत में गृद्ध होता है ऐसा यहां कहा... तथा इससे विपरीत याने भूतकाल के विषयभोगों का स्मरण नहि करनेवाले तथा भविष्यत्काल में भी दिव्यांगनाओं के भोगोपभोग की आकांक्षा नहि करनेवाले साधुजन वर्तमानकाल के विषयभोगों में आसक्त नहि होतें हैं; यह बात अब कहतें हैं... जैसे किभोगोपभोग के विपाक को जाननेवाले साधुओं को पूर्वकाल में भुक्त भोगोपभोगों का स्मरण नहिं होता तथा भविष्यत्काल के भोगोपभोगों की अभिलाषा भी नहि होती, क्योंकि- रोगव्याधि की चिकित्सा स्वरूप भोगोपभोगों की विभावना करनेवाले साधुओं को वर्तमानकाल में भी भोगोपभोगों की इच्छा कहांसे हो ? अर्थात् मोहनीय कर्म के क्षय-क्षयोपशम या उपशम से मुमुक्षु जीवों को भोगेच्छा नहि होती... अब जिस पुण्यात्मा को तीनों काल के भोगोपभोगों की अभिलाषा निवृत्त हुइ है; वह साधु जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता याने प्रज्ञानवान् है, तथा तत्त्वों का ज्ञान होने से हि वह बुद्ध भी है... तथा सावद्यानुष्ठान स्वरूप आरंभ-समारंभ से उपरत याने विरमण करना यह शुभ हि है; ऐसा आप देखो ! जानो ! क्योंकि- सावध आरंभ-समारंभ में प्रवृत्त प्राणी निगड याने बेडी आदि के द्वारा बंधन को प्राप्त करता है, तथा कश याने चाबुक आदि से . वध याने ताडन प्राप्त करता है, कि- जो ताडन प्राणों के संशय रूप होने से घोर है, तथा शारीरिक एवं मानसिक परिताप स्वरूप है... तथा दारुण याने असह्य भी है...
SR No.004436
Book TitleAcharang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay, Rameshchandra L Haria
PublisherRajendra Yatindra Jainagam Hindi Prakashan
Publication Year
Total Pages528
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size12 MB
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